पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३८
[कायाकल्प
 


देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढायें और वह इस स्वर्ण सयोग से लाभ न उठायें। यह क्योकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने जाने लगे। बातें करने में तो निगुण थे ही, दो ही चार मुलाकाता में उनका सिफा जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में जा पहुँचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ायी कि रानीजी मुग्ध हो गयी। कोई क्या तहसीलदारी करेगा। जिस इलाके मे मै था, वहाँ के यादमी अाज तक मुझे याद करते हैं । डींग नहीं मारता, डींग मारने की मेरी ग्राटत नहो, लेकिन जिम इलाके मे मुश्किल से ५० हजार वसल होता था, उसा इलाके से साल के अन्दर मैने दो लाख वमूल करके दिखा दिया और लुत्फ यह कि किसी को हिरासत में रसने या कुरकी करने की जरूरत नही पड़ी।

ऐसे कार्य कुशल यादमी की सभी जगह जरूरत रहती है। रानी ने सोचा- इस अादमी को रख लें, तो इलाके की ग्रामदनी बढ जाय । ठार साहब से सलाह की । यहाँ तो पहले ही से सारी बातें सघी बधी थी । ठाकुर साहब ने रग और भी चोखा कर दिया। उनके दोस्तों मे यही ऐसे थे, जिसपर लौगी की असीम कृपा दृष्टि थी। दूसरी ही सलामी में मुशीजी को २५) मासिक की तहसीलदारी मिल गयी। मुँह माँगी मुराद पूरी हुई । सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने का सुहागा हो गया ।

अब मुशीजी की पाँचों अगुली घी में थी। जहाँ महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहाँ अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बडे अहलकार के लिए शराब की क्या कमी | कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतले खिचवा लेते कभी शहर के किसी कलवार पर धौस जमाकर दो चार बोतल ऐंठ लेते । बिना हरे फिटकरी रग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नोकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो चार कुरसियाँ उठवा लाये | उनके हौसले बहुत ऊँचे न थे, केवल एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरो ने उनके हौसले को बहुत-कुछ पूरा कर दिया, लेकिन यह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं । रईसों का मिजाज एक सा नहीं रहता। मान लिया, रानी साहब के साथ निभ ही गयी, तो कै दिन । राना साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे । जब दीवान साहब ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती। इसलिए उन्होंने पहले ही से नये राजा साहब के यहाँ आना जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशालसिंह था । रानी साहब के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे । बड़े भाई रियासत के मालिक थे । उन्हीं के वशजों ने दो पीढियो तक राज्य का आनन्द भोगा था । अब रानी के निस्सन्तान होने के कारण विशाल सिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गाँव जो उनके दादा को गुजारे के लिए मिले थे, उन्हीं को रेहन वय करके इन लोगों ने ५० वर्ष काट दिये थे- यहाँ तक कि विशालसिंह के पास अब इतनी भी सम्पत्ति न थी कि