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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/४१

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[कायाकल्प
 

सख्या के विषय में किसी को भ्रम होता, तो वह तुरन्त उमे ठोक कर देते थे-एक हजार ? अजी, पूरे पाँच हजार श्रादमी ये पोर सभी को त्योरियाँ चढी हुई। मालूम देता था, मुझे खड़ा निगल जायेगे। नान पर खेल गया और क्या कहूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें चक्रधर की वह अनुनय-विनय अपमानजनक जान पढ़ती थी। उनका खयाल था कि इससे तो मुसलमान और भी शेर हो गये होंगे । इन लोगों से चक्रधर को घण्टों बहस करनी पडी, पर वे कायल न हुए । मुसलमानों में भी चक्रधर की तारीफ हो रही थी। दोचार श्रादमी मिलने भी अाये, लेकिन हिन्दुओं का जमघट देसकर 'लौट गये।

और लोग तो तारीफ कर रहे थे, पर मुशी वनधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे। तुम्हीं को क्यों यह भूत सवार हो जाता है ? क्या तुम्हारी ही जान सस्ती है ? तुम्ही को अपनी जान भारी पड़ी है ? क्या वहाँ यार लोग न थे, फिर तुम क्यो अाग म कृदने गये ? मान लो, मुसलमानों ने हाय चला दिया होता, तो क्या करते ? फिर तो कोई साहब पास न फटकते ! ये हजारों यादमी, नो अाज खुशी के मारे फूले नहीं समाते, बात तक न पूछते । निर्मला तो इतनी विगढ़ी कि चक्रधर से बात न करना चाहती थी।

शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गये । वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गये थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास श्राकर बोली-पाप कर पाये, बाबूजी ? मैं पत्रों मे रोज वहाँ का समाचार देखती थी और मोचती थी कि ग्राप यहाँ पायेंगे, तो यापकी पूजा करूँगी । श्राप न होते तो वहाँ जरूर दगा हो जाता। पापको बिगडे हुए मुसलमाना के सामने अकेले जाते हुए जरा भी शका न हुई ?

चक्रधर ने कुरसी पर बैठते हुए कहा-जरा भी नहीं ! मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूंगा, इसके सिवा दिल में और कोई खयाल न था। अब सोचता हूँ, तो अाश्चर्य होता है कि मुझमे इतना बल और साहस कहाँ से आ गया था। मैं तो यही कहूंगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं । फिसाद से वे भा उतना ही डरते हैं, जितना हिन्दू । शान्ति की इच्छा भी उनमें हिन्दुओ से कम नहा है । लोगों का यह खयाल कि मुसलमान लोग हिन्दुओं पर राज्य करने का स्वप्न देख रहे हैं बिलकुल गलत है। मुसलमानों को केवल यह शका हो गयी है कि हिन्दू उनस पुराना वैर चुकाना चाहते हैं, और उनकी हस्ती को मिटा देने की फिक्र कर रहे हैं। इसी भय से वे जरा-जरा सी बात पर तिनक उठते हैं और मरने मारने पर आमादा हो जाते हैं।

मनोरमा-मैंने तो जब पढा कि ग्राप उन बौखलाये हए आदमियों के सामन निःशक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये। आगे पढने की हिम्मत न पड़ती