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[कायाकल्प
 

गिराकर उन पशुओं का अन्त कर देता। मुझे यही जलन थी। कितने दिनों मेरी यह अवस्था रही इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ समय का बोध कराने वाली मात्राएँ न थीं, पर मुझे तो ऐसा जान पड़ता था कि उस दशा में पड़े हुए मुझे कई युग बीत गये। रोज नयी नयी सूरतें आती और पुरानी सूरतें लुप्त होती रहती थीं। सहसा एक दिन मैं भी लुप्त हो गया। कैसे लुप्त हुआ, यह याद नहीं, पर होश आया, तो मैंने अपने को बालक के रूप में पाया। मैंने राजा हर्षपुर के घर में जन्म लिया था।

इस नये घर में मेरा लालन-पालन होने लगा। ज्यों-ज्यों बढ़ता था, स्मृति पर परदा-सा पड़ता जाता था, पिछली बातें भूलता जाता था। यहाँ तक कि जब बोलने की सामर्थ्य हुई, तो माया अपना काम पूरा कर चुकी थी। बहुत दिनों तक अध्यापकों से पढ़ता रहा। मुझे विज्ञान में विशेष रुचि थी। भारतवर्ष में विज्ञान की कोई अच्छी प्रयोगशाला न होने के कारण मुझे यूरप जाना पड़ा। वहाँ मै कई वैज्ञानिक परीक्षाएँ करता रहा। जितना ही रहस्यों का ज्ञान बढ़ता था, उतनी ही ज्ञान पिपासा भी बढ़ती थी, किन्तु इन परीक्षाओं का फल मुझे लक्ष्य से दूर लिये जाता था। मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्व निकाल लूँगा, पर सात वर्षों तक अनवरत परिश्रम करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ।

एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला। मुझे चिन्तित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा, फिर बोला—बालू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से प्रात्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता।

मैंने चकित होकर पूछा—आपको मेरे मन की बात कैसे मालूम हुई?

भिन्नु ने हँसकर कहा—आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है। जड़ से चेतन का ज्ञान नहीं होता। यह क्रिया ही उलटी है। उन महात्माओं के पास जाओ, जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया है। वही तुम्हें वह मार्ग दिखायेंगे।

मैंने पूछा—ऐसे महात्माओं के दर्शन कहाँ होंगे? मेरा तो अनुमान है कि वह विद्या ही लोप हो गयी और उसके जानने का जो दावा करते हैं, वे बने हुए महात्मा हैं।

भिक्षु—यथार्थ कहते हो, लेकिन अब भी खोजने से ऐसे महात्मा मिल जायेंगे। तिब्बत की तपोभूमि में आज भी ऐसी महान् आत्माएँ हैं, जो माया का रहस्य खोल सकती हैं। हाँ, जिज्ञासा की सच्ची लगन चाहिए।

मेरे मन में बात बैठ गयी। तिब्बत की चरचा बहुत दिनों से सुनता आता था। भिक्षु से वहाँ की कितनी ही बातें पूछता रहा। अन्त में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी। मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई, तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गये। हमारी एक समिति बनायी गयी, जिसमें २ अँगरेज, २ फ्रेंच और ३ जर्मन थे। अपने साथ नाना प्रकार के यन्त्र लेकर हम लोग अपने मिशन पर चले। मार्ग में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, वहाँ कैसे पहुँचे, विहारों में क्या क्या दृश्य