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कायाकल्प]
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देखे, इसकी चर्चा करने लगूँ तो कई दिन लग जायँगे। कई बार तो हम लोग मरते-मरते बचे; लेकिन यहाँ चित्त को जो शान्ति मिली, उसके लिए हम मर भी जाते, तो दुःख न होता। अँगरेजों को तो सफलता न हुई; क्योकि वे तिब्बत की सैनिक स्थिति का निरीक्षण करने आये थे और भिक्षुओं ने उनकी नीयत भाँप ली थी। लेकिन शेष पाँचों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रन्थ रत्न खोज निकाले कि उन्हें यहाँ से ले जाना कठिन हो गया। जर्मन तो ऐसे प्रसन्न थे, मानो उन्हें कोई प्रदेश हाथ आ गया हो।

शरद-ऋतु थी, जलाशय हिम से ढक गये थे। चारों ओर बर्फ-ही-बर्फ दिखायी देती थी। मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गये थे। अकेला मैं ही रह गया था। एक दिन सन्ध्या समय मैं इधर-उधर बिचरता हुआ एक शिला पर जाकर खड़ा हो गया। सामने का दृश्य अत्यन्त मनोरम था, मानो स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। उसका बखान करना उसका अपमान करना है। मनुष्य की वाणी में न इतनी शक्ति है, न शब्दों में इतना वैचित्र्य। इतना ही कह देना काफी है कि वह दृश्य अलौकिक था, स्वर्गापम था। बिशाल दृश्यों के सामने हम मंत्र मुग्ध-से हो जाते हैं, अवाक् होकर ताकते हैं, कुछ कह नहीं सकते। मौन आश्चर्य की दशा में खड़ा ताक हो रहा था कि सहसा मैंने एक वृद्ध पुरुष को सामने की एक गुफा से निकलकर पर्वत-शिखर की ओर जाते देखा। जिन शिलाओं पर कल्पना के भी पाँव डगमगा जायँ, उनपर वह इतनी सुगमता से चले जाते थे कि विस्मय होता था। बड़े-बड़े दरों को इस भाँति फाँद जाते थे, मानों छोटी-छोटी नालियाँ हैं। मनुष्य की यह शक्ति कि वह, उस हिम से ढके हुए दुर्गम शृङ्ग पर इतनी चपलता से चला जाय और मनुष्य भी वह जिसके सिर के बाल सन् की भाँति सफेद हो गये थे। मुझे ख्याल आया कि इतना पुरुषार्थ प्राप्त करना किसी सिद्ध ही का काम है। मेरे मन में उनके दर्शनों की तीन उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था। वह न जाने फिर कब तक उतरे, कब तक वहाँ खड़ा रहना पड़े। उधर अँधेरा बढ़ता जाता था। आखिर मैंने निश्चय किया कि आज लौट चलूं, कल से रोज दिन भर यही बैठा रहूँगा, कभी न कभी तो दर्शन होगे ही। मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा। दूसरे दिन में प्रातःकाल वहाँ आकर बैठ गया और सारे दिन शिखर की ओर टकटकी लगाये देखता रहा; पर चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया। एक महीने तक यही मेरा नित्य का नियम रहा। रात भर विहार में पड़ा रहता, दिनभर शिला पर बैठा रहता; पर महात्माजी न जाने कहाँ गायब हो गये थे उनकी झलक तक न दिखायी देती थी। मैंने कई बार ऊपर चढ़ने का प्रयत्न किया, पर सौ गज से आगे न जा सका। कील काँटे ठोंकते, शिलाओं पर रास्ता बनाते कई महीनो में शिखर पर पहुँचना सम्भव था; पर यह अकेले आदमी का काम न था, अन्य भिक्षुओं से पूछता तो वे हँसकर कहते—उनके दर्शन हमें दुर्लभ हैं, तुम्हें क्या होंगे? बरसों से कभी एक बार दिखायी दे जाते हैं। कहाँ रहते हैं, कोई नहीं जानता, किन्तु अधीर न होना। वह