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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/५८

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कायाकल्प]
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मयंकर निशा, वह भयकर जन्तुओं की गरज और तड़प याद करता हूँ, तो आज भी रोमाञ्च हो जाता है। बार-बार पूर्व दिशा की ओर ताकता था; पर निर्दयी सूर्य उदय होने का नाम न लेता था। खैर, किसी तरह रात कटी, सवेरे फिर चला। श्राज की चढ़ाई इतनी सीधी न थी, फिर भी ५० गज से आगे न जा सका । रास्ते में एक दर्रा'पड गया, जिसे पार करना असम्भव था। इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ायी; पर ऐसा कोई उतार न दिखायी दिया जहाँ से उतरकर दर्रे को पार कर सकता। इधर भी सीधी दीवार थी, उधर भी । संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखायो दिये। मेरी जेब में पतली रस्सी का एक टुकड़ा पड़ा हुआ था। अगर किसी तरह इस रस्सी को दोनों वृक्षों में बाँध सकें, तो समस्या हल हो नाय, लेकिन उस पार रस्सी को पेड़ में कौन बाँधे ? आखिर मैंने रस्सी के एक सिरे में पत्थर का एक भारी टुकड़ा खूब कस- कर बाँधा और उसको लंगर की भॉति उस पारवाले वृक्ष पर फेंकने लगा कि किसी डाल में फँस जाय, तो पार हो जाऊँ । बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहाँ तक न पहुँचता था। सारा दिन इसी लगरवानी में कट गया, रात आ गयी। शिलाओं पर सोना जान-जोखिम था। इसलिए वह रात मैंने वृक्ष ही पर काटने की ठानी । मैं उस पर चढ़ गया और दो डालों में रस्सी फंसा फंसाकर एक छोटी-सी खाट बना ली। आधी रात गुजरी थी कि बड़े जोर का धमाका हुआ । उस अथाह खोह में कई मिनट तक उसकी आवाज गूंजती रही। सवेरे देखा तो बर्फ की एक बड़ी शिला ऊपर से पिघलकर गिर पड़ी थी और उस दर्रे पर उसका एक पुल-सा बन गया था । मैं खुशी के मारे फूला न समाया । जो मेरे किए कभी न हो सकता, वह प्रकृति ने अपने आप हो कर दिया । यद्यपि उस पुल पर से दर को पार करना प्राणों से खेलना था-मृत्यु के मुख में पाँव रखना था; पर दूसरा कोई उपाय न था। मैंने ईश्वर को स्मरण किया और सँभल-संभलकर उस हिम-राशि पर पॉव रखता हुआ खाई को पार कर गया। इस असाध्य साधना में सफल होने से मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि मैं मर नहीं सकता । कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही है। किसी कठिन कार्य में सफल हो जाना आत्मविश्वास के लिए सञ्जीवनी के समान है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरा मनोरथ अवश्य पूरा होगा।

उस पार पहुंचते ही सीधी चट्टान मिली। दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अन्तर था। उस पतले रास्ते पर चलना तल-वार को बाढ़ पर पैर रखना या । चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो-तीन थएटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुंचा, जहाँ चट्टान को तेजी बहुत कम हो गयी थी। मैं लेटकर ऊपर को रेंगने लगा। सम्भव था, मै सन्ध्या तक इस तरह रेंगता रहता, पर सयोग से एक समतल शिला मिल गयी और उसे देखते ही मुझे नोर की थकान मालूम होने लगी। जानता था कि यहाँ सोकर फिर उठने की नौबत न आयेगी, पर जरा-से लेट जाने के लोभ को मैं किसी तरह संवरण न कर सका । नींद को दूर रखने