देवप्रिया ने उसका कोई उत्तर न दिया। प्रश्नसूचक नेत्रों से राजकुमार की ओर ताकने लगी।
राजकुमार—तो अब तुम्हें मेरे साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है?
देवप्रिया ने रुँधे हुए कण्ठ से कहा—प्राणनाथ, आप मुझसे यह प्रश्न क्यों करते हैं? आप मेरा उद्धार कर रहे हैं, आपको छोड़कर और किसकी शरण जाऊँगी? अब तो मुझे आप मार-मारकर भी भगायें, तो आपका दामन न छोड़ूँगी। आह स्वामी! यह शुभ अवसर जीते-जी मिलेगा, इसकी तो स्वप्न में भी आशा न थी। मेरा सौभाग्यसूर्ये इतने दिनों के बाद फिर उदय होगा, यह तो कदाचित् मेरे देवताओं को भी न मालूम होगा। न जाने किसके पुण्य-प्रताप से मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ है। कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है? आपको पाकर मैं सब कुछ पा गयी। अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही। आपकी चेरी हूँ—वही चेरी, जो एक बार आपके ऊपर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी है।
राजकुमार ने रानी को कण्ठ से लगाकर कहा यह हमारा पुनर्संयोग है।
देवप्रिया—नहीं प्राणनाथ, मैं इसे प्रेम-मिलन समझती हूँ।
यह कहते-कहते रानी चुप हो गयी। उसे याद आ गया कि मुझ जैसी वृद्वा ऐसे देव-रूप पुरुष के योग्य नहीं है। अभी दया के वशीभूत होकर यह मेरा उद्धार कर देंगे, पर दया कब तक प्रेम का पार्ट खेलेगी? सम्भव है, इनकी दया दृष्टि मुझपर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियो को कौन मुँह दिखाऊँगी, जनता के सामने कैसे निकलूँगी। उस दशा में तो दया मेरी रक्षा न कर सकेगी। यह अवस्था तो असह्य हो जायगी। राजकुमार ने उसके मनोभावो को ताड़कर कहा—प्रिये, तुम्हारे मन मे शकाओं का उठना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें निकाल डालो। मैं विलास का दास होता, तो तुम्हारे पास आता ही नहीं। मेरे चित्त की वृत्ति वासना की ओर नहीं है। मैं रूप-सौन्दर्य का मूल्य जानता हूँ और उसका मुझपर कोई आकर्षण नहीं हो सकता। मेरे लिए तो तुम इस रूप में भी उतनी ही प्रिय हो। हाँ, तुम्हारे सन्तोष के लिए मुझे वह क्रियाएँ करनी पड़ेंगो, जो महात्माजी ने चलते-चलते बतायी थीं। जिसके द्वारा मैंने मायान्धकार पर विजय पायी, उसके द्वारा काल की गति को भी पलट सकूँगा। मुझे पूरा विश्वास है कि मुरझाया हुआ फूल एक बार फिर हरा हो जायगा—वही छवि, वही सौरभ, वही कोमलता फिर इसकी बलाएँ लेंगी। लेकिन तुम्हें भी मेरे लिए बड़े-बड़े त्याग करने पड़ेंगे। सम्भव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही सन्तोष करना पड़े। क्या तुम उन कष्टों को सह सकोगी?
देवप्रिया—आपको पाकर अब मुझे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रही। विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। जिसे सच्चा सुख मयस्सर हो, वह विलास की तृष्णा क्यों करें।
रानी मुँह से तो ये बातें कह रही थीं, किन्तु इस विचार से उनका चित्त प्रफुल्लित