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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/६६

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कायाकल्प]
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है कि वह अापको सद्बुद्धि दे और आपकी की कोति देश-देशान्तरों में फैलाये ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर अानन्द को और कोई बात न होगी ।

आपकी-देवप्रिया
 

यह पत्र लिखकर रानी ने मेन पर रखा ही था कि उन्हें खयाल आया, मैं अपना राज्य क्यों छोड़ ? मैं हर्षपुर से भी तो इसकी देखभाल कर सकती है। साल में महीने टो-महीने के लिए यहाँ अाना कौन मुश्किल है ? चलकर प्राणनाय से पूछ, उन्हें इसमे कोई आपत्ति तो न होगी। वह राजकुमार के कमरे के द्वार तक गयी, पर अन्दर कदम न रख सकी। खयाल अाया, समझेंगे अभी तक इसकी तृष्णा बनी हुई है ! उलटे पाँव लौट आयी।

रात के दो बन गये थे । देवप्रिया यात्रा की तैयारियाँ कर रही थी। उसके मन में प्रश्न हो रहा था, कौन-कौन सी चीजें साथ ले जाऊँ ? पहले वह अपने वस्त्रागार में गयो । शीशे की आलमारियो में एक-से-एक अपूर्व वस्त्र चुने हुए रखे थे। इस समूह में से उसने खोजकर अपनो सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने अाज २५ वर्ष हो गये। आज उसकी शोभा और सभी साड़ियों से बढी हुई थी। उसके सामने सभी कपड़े फीके जचते थे।

फिर वह अपने आभूषणो की कोठरी में गयी। इन श्राभूषणों पर वह जान देती थी। ये उसे अपने राज्य से भी प्रिय थे। लेकिन इस समय इनको छूते हुए उसे ऐसा भय हो रहा था, मानो चोरी कर रही है। उसने बहुत साहस करके रत्नों का वह सन्दू- कचा निकाला, जिसपर इन २५ बरसो में उसने लाखों रुपए खर्च किये थे और उसे अञ्चल में छिपाये हुए बाहर निकली। इस लोभ को वह सवरण न कर सकी।

वह अपने कमरे मे आकर बैठी ही थी कि गुजराती आकर खड़ी हो गयी। देव-प्रिया ने पूछा-सोयी नहीं ?

गुजराती-सरकार नही सोयी, तो मैं कैसे सोती ?

'मैं तो कल तीर्थ यात्रा करने जा रही हूँ ?'

'मुझे भी साथ ले चलिएगा?'

'नहीं, मै अकेली जाऊँगी।'

'सरकार लौटेंगी कब तक ?

'कह नहीं सकती । बहुत दिन लगेंगे । बता, तुझे क्या उपहार हूँ ?'

'मैं तो एक बार माँग चुको । लुगी तो वही लूँगी ।'

'मैं तुझे नौलखा हार दूंगी।'

'उसकी मुझे इच्छा नहीं ।

'चड़ाऊँ कगन लेगी?

'जी नहीं !

'वह रल लेगी, जो बड़ी बड़ी रानियों को भी मयस्सर नहीं ?'