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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/७७

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कायाकल्प]
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विशालसिंह—आपको पुरानी कथा मालूम नहीं। इसने मुझपर बड़े-बड़े जुल्म किये हैं। इसी के कारण मुझे जगदीशपुर छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कत्ल करा दिया होता।

वज्रधर—गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता तो क्या रानीजी की जान बच जाती, या दीवान साहब जिन्दा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइए। भगवान् ने आज आपको ऊँचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। ऐसी बातें आपके दिल में न आनी चाहिए। मातहतों से उनके अफसर के विषय में कुछ पूछ-ताछ करना अफसर को जलील कर देना है। मैंने इतने दिनों तहसीलदारी की; लेकिन नायब साहब ने तहसीलदार के विषय में चपरासियों से कभी कुछ नहीं पूछा। मैं तो खैर इन मामलो को समझता हूँ; लेकिन दूसरे मातहतों से यदि आप ऐसी बाते करेंगे, तो वह अपने अफसर की हजारों बुराइयाँ आपसे करेंगे। मैंने ठाकुर साहब के मुँह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह मालूम हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।

विशालसिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा—मैं आपको ठाकुर साहब का मातहत नहीं, अपना मित्र समझता हूँ, और इसी नाते से मैंने आपसे यह बात पूछी थी। मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूँगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें। हाँ, प्रजापर अत्याचार न करें।

वज्रधर—नौकर अपने मालिक का रुख देखकर ही काम करता है। रानीजी को हमेशा रुपए की तंगी रहती थी। दस लाख की आमदनी भी उनके लिए काफी न होती थी! इसी हालत में ठाकुर साहब को मजबूर होकर प्रजा पर सख्ती करनी पड़ती थी। वह कभी आमदनी और खर्च का हिसाब न देखती थीं। जिस वक्त जितने रुपयो की उन्हें जरूरत पड़ती थी, ठाकुर साहब को देने पड़ते थे। जहाँ तक मुझे मालूम है, इस वक्त रोकड़ में एक पैसा भी नहीं है। गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई-न-कोई और प्रबन्ध करना पड़ेगा। दो ही उपाय हैं—या तो कर्ज लिया जाय, अथवा प्रजा से कर वसूलने के सिवा ठाकुर साहब और क्या कर सकते हैं?

विशालसिंह—गद्दी के उत्सव के लिए मैं प्रजा का गला नही दबाऊँगा। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि उत्सव मनाया ही न जाय।

वज्रधर—हुजूर यह क्या फरमाते हैं। ऐसा भी कहीं हो सकता है?

विशालसिंह—खैर, देखा जायगा। जरा अन्दर जाकर रानियों को भी खुशखबरी दे आऊँ!

यह कहकर कुँवर साहब घर में गये। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। वह पीछे की तरफ की खिड़की खोले खड़ी थी। उस अन्धकार में उसे अपने भविष्य का रूप खिंचा हुआ नजर आता था। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदान्ध आँखें