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[कायाकल्प
 

ताल देने लगे। यहाँ तक कि वह नाचने लगे। उन्हें इसकी जरा भी झेंप न थी कि लोग दिल में क्या कहते होंगे। गुणी को अपना गुण दिखाते शर्म नहीं आती। पहल वान को अखाड़े में ताल ठोंककर उतरते क्या शर्म। जो लड़ना नहीं जानते, वे ढकेलने से भी अखाड़े में नहीं जाते। सभी कर्मचारी मुँह फेर-फेरकर हँसते थे। जो लोग बाहर चले गये थे, वे भी यह ताण्डव नृत्य देखने के लिए आ पहुँचे। यहाँ तक कि विशालसिंह भी हँस रहे थे। मुंशीजी के बदले देखनेवालों को झेंप हो रही थी, लेकिन मुंशीजी अपनी धुन में मग्न थे। गुणी गुणियों के सामने अनुरक्त हो जाता है। अनाड़ी लोग तो हँस रहे थे और गुणी लोग नृत्य का आनन्द उठा रहे थे। नृत्य ही अनुराग की चरम सीमा है।

नाचते नाचते आनन्द से विह्वल होकर मुंशीजी गाने लगे। उनका मुख अनुराग से प्रदीप्त हो रहा था। आज बड़े सौभाग्य से और बहुत दिनों के बाद उन्हें यह स्वर्गीय आनन्द प्राप्त करने का अवसर मिला था। उनकी बूढ़ी हड्डियों में इतनी चपलता कहाँ से आ गयी, इसका निश्चय करना कठिन है। इस समय तो उनकी फुर्ती और चुस्ती जवानों को भी लज्जित करती थी। उनका उछलकर आगे जाना, फिर उछलकर पीछे आना, झुकना और मुड़ना, और एक एक अंग को फेरना वास्तव में आश्चर्यजनक था। इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुँचा। सारी महफिल खड़ी हो गयी और सभी उस्तादों ने एक स्वर से मंगलगान शुरू किया। साजों के मेले ने समाँ बाँध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे, जिन्हें इस समय भी चिन्ता घेरे हुए थी। एक तो ठाकुर हरिसेवकसिंह, दूसरे कुँवर विशालसिंह। एक को यह चिन्ता लगी हुई थी कि देखें, कल क्या मुसीबत आती है, दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्योंकर पुरानी कसर निकालूँ। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुँह छिपाये बाहर खड़े थे, मंगल गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बाँटने लगे। किसी ने मोहन-भोग का थाल उठाया, किसी ने फलों का। कोई पञ्चामृत बाँटने लगा। हरबोग-सा मच गया। कुँवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला, दालान में ले जाकर पूछने लगे—दीवान साहब ने तो मौका पाकर खूब हाथ साफ किये होंगे।

वज्रधर—मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिन-भर सामान की जाँच पड़ताल करते रहे। घर तक न गये।

विशालसिंह—यह सब तो आपके कहने से किया। आप न होते, न जाने क्या गजब ढाते।

वज्रधर—मेरी बातों का यह मतलब न था कि वह आपसे कोना रखते हैं। इन छोटी छोटी बातों की ओर ध्यान देना उनका काम नहीं है। मुझे तो यह फिक्र थी कि दफ्तर के कागज तैयार हो जायँ। मैं किसीकी बुराई न करूँगा। दीवान साहब को आपसे अदावत थी, यह मैं मानता हूँ। रानी साहब का नमक खाते थे और आपका बुरा चाहना उनका धर्म था, लेकिन अब वह आपके सेवक हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि वह उतनी ही ईमानदारी से आपकी सेवा करेंगे।