हुए बड़ी झेप होती थी। वह यही प्रयत्न करते थे कि टाकुर साहेब की उपस्थिति ही में उसे पढायें। यदि कभी ठाकुर साहब कही चले नाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता था।
एक दिन चक्रधर इसी सकट मे जा फँसे । ठाकुर माहब कही गये हुए थे। चक्रधर कुरसी पर बैठे, पर मनोरमा की ओर न ताककर द्वार की ओर ताक रहे थे, मानो वहाँ बैठते डरते हों। मनोरमा वाल्मीकीय रामायण पढ रही थी। उसने दो-तीन बार चक्रधर की और ताका, पर उन्हें द्वार की ओर ताकते देखकर फिर किताब देखने लगी। उसके मन में सीता के वनवास पर एक शङ्का हुई थी और वह इसका समाधान करना चाहती थी। चक्रधर ने द्वार की ओर ताकते हुए पूछा-चुप क्यों बैठी हो, आज का पाठ क्यों नहीं पढती ?
मनोरमा-मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ, आज्ञा हो तो पूछूंँ ?
चक्रधर ने कातर भाव से कहा- क्या बात है ?
मनोरमा-रामचन्द्र ने सीताजी को घर से निकाला, तो वह चली क्यों गयी ?
चक्रधर-और क्या करती ?
मनोरमा-वह जाने से इनकार कर सकती थी। एक तो राज्य पर उनका अधिकार भी रामचन्द्र ही के समान था, दूसरे वह निर्दोष थी। अगर वह यह अन्याय न स्वीकार करतीं, तो क्या उन पर कोई आपत्ति हो सकती थी ?
चक्रधर-हमारे यहाँ पुरुषों की आज्ञा मानना स्त्रियों का परम धर्म माना गया है। यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जाती।
मनोरमा यह तो मै जानती हूँ कि स्त्री को पुरुष की आज्ञा माननी चाहिए। लेकिन क्या सभी दशाओं में ? जब राजा से साधारण प्रजा न्याय का दावा कर सकती है, तो क्या उसकी स्त्री नहीं कर सकती ? जब गमचन्द्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी. और अन्त:करण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निन्दा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहाँ का न्याय था?
चक्रधर-राज धर्म का आदर्श भी तो पालन करना था !
मनोरमा-तो क्या दोनों प्राणी जानते थे कि हम संसार के लिए आदर्श खड़ा कर रहे हैं ? इससे तो यह सिद्ध होता है कि वे कोई अभिनय कर रहे थे। अगर आदर्श भी मान लें, तो यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है। यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते ?
चक्रधर बड़े असमंस में पड़ गये। उनके मन में स्वयं यही शङ्का और लगभग इसी उम्र में पैदा हुई थी, पर वह इसका समाधान न कर सके थे। अब साफ साफ जवाब देने की जरूरत पड़ी, तो बगलें झॉकने लगे।