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[कायाकल्प
 


मनोरमा—उनसे भी यही कहती कि आप चुपके से घर चले जाइए, नहीं तो अच्छा न होगा। आप मेरे पूज्य पिता हैं, मैं आपकी सेवा करूँगी, लेकिन आपको दूसरों का खून न चूसने दूँगी। गरीबों को सताकर अपना घर भर लिया, तो कौन सा बड़ा तीर मार लिया। बीर तो जब बखानूँ, जब सबलों के ताल ठोंकिए। अभी एक गोरा आ जाय, तो घर में दुम दबाकर भागेंगे। उस वक्त जबान भी न खुलेगी। उससे जरा आँखें मिलाइये तो देखिए, ठोकर जमाता है या नहीं। उससे तो बोलने की हिम्मत नही, बेचारे दीनों को सताते फिरते हैं। यह तो मरे को मारना हुआ। इसे एकमत नहीं कहते। यह चोरी भी नहीं है। यह केवल मुरदे और गिद्ध का तमाशा है।

चक्रधर ये बातें सुनकर पुलकित हो उठे। मुस्कराकर बोले—अगर दीवान साहब खफा हो जाते?

मनोरमा—तो खफा हो जाते। किसी के खफा होने के डर से सच्ची बात पर परदा थोड़ा ही डाला जाता है। अगर आज वह आ गये, तो मैं आज ही जिक्र करूँगी।

यह कहते कहते मनोंरमा कुछ चिन्तित-सी हो गयी और चक्रधर भी विचार में पड़ गये। दोनों के मन में एक ही भाव उठ रहे थे—इसका फल क्या होगा। वह सोचती थी, कहीं लालाजी ने गुस्से में आकर बाबूजी को अलग कर दिया तो? चक्रधर सोच रह थे, यह शंका मुझे क्यों इतना भयभीत कर रही है! इस विषय पर फिर कुछ बातचीत न हुई, लेकिन चक्रधर यहाँ से पढ़ाकर चले, तो उनके मन में प्रश्न हो रहा था—क्या अब यहाँ मेरा आना उचित है। आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अन्तस्तल को देखा, तो उसमें कितने ही ऐसे भाव छिपे हुए थे, जिन्हें यहाँ न रहना चाहिए था। रोग जब तक कष्ट न देने लगे, हम उसकी परवा नहीं करते। बालक की गालियाँ हँसी में उड़ जाती हैं, लेकिन सयाने लड़के की गालियाँ कौन सहेगा?


१४

गद्दी के कई दिन पहले ही से मेहमानों का आना शुरू हो गया और तीन दिन बाकी ही थे कि सारा कैम्प भर गया। दीवान साहब ने कैम्प ही में बाजार लगवा दिया था, वहीं रसद पानी का भी इन्तजाम था। राजा साहब स्वय मेहमानों की खातिरदारी करते रहते थे, किन्तु जमघट बहुत बड़ा था। आठो पहर हरबोंग-सा मचा रहता था।

बड़े-बड़े नरेश आये थे। कोई चुने हुए दरबारियों के साथ, कोई लाव लश्कर लिये हुए। कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिये बाने की। कोई रत्न जटित आभूषण पहने, कोई अँगरेजी सूट से लैस, कोई इतना विद्वान् कि विद्वानों में शिरोमणि कोई इतना मूर्ख कि मूर्ख-मण्डली की शोभा! कोई पाँच घण्टे स्नान करता था और कोई सात घण्टे पूजा। कोई दो बजे रात को सोकर उठता था. कोई दो बजे दिन को। रात-दिन तबले ठनकते रहते थे। कितने महाशय ऐसे भी थे, जिनका दिन अँगरेजी कैम्प का चक्कर लगाने ही में कटता था। दो-चार सज्जन प्रजावादी भी थे। चक्रधर और उनकी टुकड़ी के और लोग इन लोगों का सेवा-सत्कार विशेष करने में लगे थे॥