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कायाकल्प]
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किन्तु विद्वान या मूर्ख, राजसत्ता के स्तम्भ या लोकसत्ता के भक्त, सभी अपने को ईश्वर का अवतार समझते थे, सभी गरूर के नशे में मतवाले, सभी विलासिता में डूबे हुए, एक भी ऐसा नहीं, जिसमें चरित्रबल हो, सिद्धान्त प्रेम हो, मर्यादा-भक्ति हो।

नरेशों की सम्मान लालसा पग-पग पर अपना जलवा दिखाती थी! वह मेरे आगे क्यों चले, उन्हें मेरे पीछे रहना चाहिए था। उनका पूर्वज हमारे पुरुखाओं का करदाता था। बातें करने में, अभिवादन में, भोजन करने के लिए बैठने में, महफिल में, पान और इलायची लेने में, यही अनैक्य और द्वेष का भाव प्रकट होता रहता था। राजा विशालसिह और कर्मचारियों का बहुत सा समय चिरौरी विनती करने में कट जाता था। कभी-कभी तो इन महान् पुरुषों को शान्त करने के लिए राजा साहब को हाथ जोड़ना और उनके पैरो पर सिर रखना पड़ता था। दिल में पछताते थे कि व्यर्थ ही यह आडम्बर रचा। भगवान किसी भाँति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल कभी न होगी। किसी अनिष्ट की शंका उन्हे हरदम उद्विग्न रखती थी। मेहमानों से तो काँपते रहते थे; पर अपने आदमियों से जरा-जरा सी बात पर बिगड़ जाते थे, जो मुँह में आता बक डालते थे।

अगर शान्ति थी तो अँगरेजी कैम्प में। न नौकरों की तकरार थी, न बाजारवालों से जूती-पैजार थी। सब की चाय का एक समय, डिनर का एक समय, विश्राम का एक समय, मनोरञ्जन का एक समय। सब एक साथ थिएटर देखते, एक साथ हवा खाने जाते। न बाहर गन्दगी थी, न मन में मलिनता। नरेशों के कैम्प में पराधीनता का राज्य था और अँगरेजी कैम्प में स्वाधीनता का। स्वाधीनता सद्गुणों को जगाती है, पराधीनता दुर्गुणों को।

उधर रनिवास में भी खूब जमघट था। महिलाओं का रंग रूप देखकर आँखों में चकाचौंध हो जाती थी। रत्न और कञ्चन ने उनकी कान्ति को और भी अलंकृत कर दिया था। कोई पारसी वेश में थी, कोई अँगरेजी वेश में और कोई अपने ठेठ स्वदेशी ठाट में। युवतियाँ इधर-उधर चहकती फिरती थी, प्रौढाएँ आँखें मटका रही थीं। वासना उम्र के साथ बढ़ती जाती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आँखो के सामने था। अँग्रेजी फैशनवालियाँ औरों को गँवारिनें समझती थीं; और गँवारिनें उन्हें कुलटा कहती थीं। मजा यह था कि सभी महिलाएँ ये बातें अपनी महरियों और लौड़ियों से कहने में भी संकोच न करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निन्दा और परिहास के लिए ही रचा है। मन और तन में कितना अन्तर हो सकता है, इसका कुछ अनुमान हो जाता था। मनोरमा को महिलाओं की सेवा सत्कार का भार सौंपा गया था; फिन्तु उसे यह यह चरित्र देखने में विशेष आनन्द आता था। उसे उनके पास बैठने में घृणा होती थी। हाँ, जब रानी रामप्रिया को बैठे देखती, तो उनके पास जा बैठती। इतने काँच के टुकड़ों में उसे वही एक रत्न नजर आता था।

मेहमानों के आदर सत्कार की तो यह धूम थी और वे मजदूर, जो छाती फाड़-