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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/९७

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[कायाकल्प
 

जौहर दिखायें। राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे। एक आदमी उनकी पाग सँवार रहा था। इन वस्त्रों में उनकी प्रतिभा भी चमक ठठी थी। वस्त्रों मे इतनी तेज बढ़ानेवाली शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी। यह खबर सुनी, तो तिलमिला गये। वह अपनी समझ में प्रजा के सच्चे भक्त थे, उन पर कोई अत्याचार न होने देते थे, उनको लूटना नहीं, उनका पालन करना चाहते थे। जब वह प्रजा पर इतना प्राण देते थे, तो क्या प्रजा का धर्म न था कि वह भी उन पर प्राण देती, और फिर शुभ अवसर पर! जो लोग इतने कृतघ्न हैं, उन पर किसी तरह की रिआयत करना व्यर्थ है। दयालुता दो प्रकार की होती है—एक में नम्रता होती है, दूसरो में आत्म-प्रशंसा। राजा साहब की दयालुता इसी प्रकार की थी। उन्हें यश की बड़ी इच्छा थी, पर यहाँ इस शुभ-अवसर पर इतने राजाओं रईसों के सामने ये दुष्ट लोग उनका अपमान करने पर तुले हुए थे। यह उन पाजियों की घोर नीचता थी और इसका जबाब इसके सिवा और कुछ नहीं था कि उन्हें खूब कुचल दिया जाता। सच है, सीधे का मुँह कुत्ता चाटता है। मैं जितना ही इन लोगों को संतुष्ट रखना चाहता हूँ, उतने ही ये लोग शेर हो जाते हैं। चलकर अभी उन्हें इसका मजा चखाता हूँ। क्रोध से बावले होकर वह अपनी बन्दूक लिये खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर जा पहुँचे।

चौधरी इतनी देर में झाड़-पोंछकर उठ बैठा था। राजा को देखते ही रोकर बोला—दुहाई है महाराज की। सरकार, बड़ा अन्धेर हो रहा है। गरीब लोग मारे जाते हैं।

राजा—तुम सब पहले बाड़े के द्वार से हट जाओ, फिर जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। अगर किसी ने बाड़े के बाहर पाँव रखा, तो जान से मारा जायगा। दगा किया, तो तुम्हारी जान की खैरियत नहीं।

चौधरी—सरकार ने हमको काम करने के लिए बुलाया है कि जान लेने के लिए?

राजा—काम न करोगे, तो जान ली जायगी।

चौधरी—काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें?

राजा—क्या बेहूदा बातें करता है, चुप रहो। तुम सब के सब मुझे बदनाम करना चाहते हो। हमेशा से लात खाते चले आये हो और वही तुम्हें अच्छा लगता है। मैंने तुम्हारे साथ भलमनसी का बर्ताव करना चाहा था, लेकिन मालूम हो गया कि लातों के देवता बातों से नहीं मानते। तुम नीच हो और नीच लातों के बगैर सीधा नहीं होता। तुम्हारी यही मरजी है, तो यही सही।

चौधरी—जब लात खाते थे, तब खाते थे। अब न खायेंगे।

राजा—क्यों? अब कौन सुरखाब के पर लग गये हैं?

चौधरी—वह समय ही लद गया है। क्या अब हमारी पीठ पर कोई नहीं कि मार खाते रहें और मुँह न खोलें? अब तो सेवा-सम्मती हमारी पीठ पर है। क्या वह कुछ भी