पृष्ठ:कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स.djvu/२२

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विलग कोटि के श्रम का सन्तुलन करते हैं। मालों का उत्पादन सामाजिक संबंधों की ऐसी व्यवस्था है जिसमें विभिन्न उत्पादक विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करते हैं (श्रम का सामाजिक विभाजन ), और जिसमें इन सभी वस्तुओं को विनिमय में एक दूसरे के बराबर रखा जाता है। फलतः इन सभी मालों में जो तत्व समान रूप से है, वह उत्पादन के किसी निश्चित विभाग का ठोस श्रम नहीं है, न किसी विशेष प्रकार का श्रम है, वरन् भाववाचक मानव-श्रम है, साधारण रूप से मानव-श्रम। सभी मालों के संपूर्ण मूल्य के रूप में किसी भी समाज की सम्पूर्ण श्रम-शक्ति एक ही मानवीय श्रमशक्ति है। विनिमय के लाखों-करोड़ों कार्यों से यह सिद्ध होता है। फलतः प्रत्येक माल श्रम के उस समय के एक अंश का ही प्रतिरूप है जो सामाजिक दृष्टि से आवश्यक होता है। किसी उपयोग- मूल्य के , या किसी माल के उत्पादन के लिए सामाजिक दृष्टि से श्रम का जो समय आवश्यक है, या सामाजिक दृष्टि से श्रम की जितनी मात्रा आवश्यक है, उसी से मूल्य की मात्रा आंकी जा सकती है। “जब भी विनिमय द्वारा हम विभिन्न वस्तुओं का सन्तुलन करते हैं तब इस क्रिया से ही उन पर व्यय किये हुए विभिन्न प्रकार के श्रम का भी सन्तुलन करते हैं। हम इसके प्रति सजग नहीं होते , फिर भी उसे करते हैं।" जैसा कि पहले के एक अर्थशास्त्री ने कहा था, मूल्य दो व्यक्तियों के बीच का संबंध है; केवल उसे यह भी जोड़ देना चाहिए था कि यह संबंध एक भौतिक आवरण के भीतर है। मूल्य क्या है,- इसे हम तभी समझेंगे जब हम उसे किसी निश्चित ऐतिहासिक समाज में सामाजिक उत्पादन-संबंधों की व्यवस्था के दृष्टिकोण से देखें, और ऐसे उत्पादन-संबंधों की व्यवस्था के दृष्टिकोण से जो सामूहिक रूप में प्रकट होते हैं, जहां विनिमय-चक्र के लाखों-करोड़ों आवर्तन होते हैं। “मूल्यों के रूप में, सभी माल केवल जड़ीभूत श्रम-समय के निश्चित ढेर हैं।" मालों में निहित श्रम की दोहरी विशेषता का सांगोपांग विश्लेषण करके मार्क्स ने मूल्य के स्वरूप और मुद्रा का विश्लेषण किया है। यहां उनका मुख्य कार्य मूल्य के मुद्रा-रूप के उद्गम का अध्ययन करना है; विनिमय के विकास के ऐतिहासिक क्रम का अध्ययन करना है। इस

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