विकास-क्रम में सबसे पहले वह विनिमय के इक्का-दुक्का , अलग-अलग कार्यों को लेते हैं (“ साधारण , विलग या आकस्मिक मूल्य-रूप", जिसमें किसी माल की एक मात्रा का दूसरे माल की एक निश्चित मात्रा से विनिमय किया जाता है)। इसके बाद वह मूल्य के सार्वजनीन रूप की ओर बढ़ते हैं, जिसमें कई भिन्न-भिन्न मालों का एक ही विशेष माल से विनिमय होता है। अंत में वह मूल्य के मुद्रा-रूप का विवेचन करते हैं जहां स्वर्ण ही यह विशेष माल और सार्वजनीन अनुरूप साधन बन जाता है। विनिमय के विकास और मालों के उत्पादन की उच्चतम उपज होने के कारण, मुद्रा सारे व्यक्तिगत श्रम की सामाजिकता पर पर्दा डालती है और उसे छिपाती है ; वह विभिन्न उत्पादकों के सामाजिक बन्धन को छिपाती है जिन्हें बाज़ार एक-दूसरे से मिलाता है। मार्क्स ने मुद्रा की विभिन्न क्रियाओं का विस्तृत ढंग से विश्लेषण किया है। यहां विशेष रूप से इस बात की ओर ध्यान देना आवश्यक है (और साधारणतः ‘पूंजी' के आरम्भ के अध्यायों में) कि जो व्याख्या की भाववाचक और कभी-कभी केवल निष्कर्ष-प्रधान पद्धति मालूम होती है, वह वास्तव में विनिमय और मालों के उत्पादन के विकास के इतिहास के सम्बन्ध में तथ्य के विशाल संकलन का प्रतिरूप है। यदि मुद्रा पर हम विचार करें, तो उसके अस्तित्व से मालों के विनिमय की एक निश्चित अवस्था लक्षित होती है। मुद्रा के जो विशेष उपयोग हैं चाहे मालों की बराबरी के धन के रूप में, चाहे प्रचलन के साधन के रूप में, अथवा भुगतान के लिए , चाहे जोड़े हुए धन के रूप में या विश्व मुद्रा के रूप में,- उन उपयोगों से एक न एक उपयोग के प्रसार की मात्रा और उसके न्यूनाधिक प्राधान्य के अनुरूप , सामाजिक उत्पादन-क्रम में बहुत ही भिन्न कोटि की अवस्थाओं का पता लगता है।" ( 'पूंजी', खंड १)
अतिरिक्त मूल्य
माल के उत्पादन में एक अवस्था ऐसी आती है जब मुद्रा पूंजी में बदल जाती है। माल के आदान-प्रदान का सूत्र था, माल - मुद्रा - माल , अर्थात् एक तरह का माल खरीदने के लिए दूसरी तरह का माल बेचना।
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