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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स.djvu/२९

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पिछले अनुपात-क्रम से उसका पुनरुत्पादन होता है और जब उसका संचय होता है , दोनों दशाओं में विस्तृत जांच की है। 'पूंजी' के तीसरे खंड में यह समस्या सुलझायी गयी है कि मूल्य के नियम के आधार पर मुनाफ़े को औसत दर कैसे बनती है। आर्थिक विज्ञान में एक बहुत बड़ी प्रगति यह है कि मार्क्स ने सामूहिक अर्थ संबंधी घटनावली और सम्पूर्ण सामाजिक अर्थ-व्यवस्था को ध्यान में रखकर अपना विश्लेषण किया है, न कि इक्का-दुक्का घटनाओं को लेकर या प्रतियोगिता के बिल्कुल छिछले पहलुओं को लेकर। इस तरह का संकुचित दृष्टिकोण निम्न कोटि के राजनीतिक अर्थशास्त्र में और उस समय के “सीमान्त उपयोग के सिद्धान्त'¹¹ ( थियरी ऑफ़ मार्जिनल युटिलिटी) में मिलता है। पहले मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के उद्गम का विश्लेषण किया है ; उसके बाद वह मुनाफ़े , ब्याज और भूमि-कर (ग्राउंड रेण्ट) के रूप में उसके विभाजन पर विचार करते हैं। अतिरिक्त मूल्य तथा किसी काम में लगायी हुई समस्त पूंजी के अनुपात का नाम मुनाफ़ा है। "उच्च आर्गेनिक बनावट की पूंजी (अर्थात् जिसमें सामाजिक औसत से ऊपर अस्थिर पूंजी से स्थिर पूंजी ज्यादा होती है ) से मुनाफ़े की औसत से कम दर मिलती है। 'निम्न आर्गेनिक बनावट" की पूंजी से मुनाफ़े की औसत से ज्यादा दर मिलती है। पूंजीपति उत्पादन के एक विभाग से पूंजी को हटाकर उसे दूसरे विभाग में लगाने के लिए स्वच्छन्द हैं; उनकी परस्पर प्रतियोगिता से दोनों ही दशाओं में मुनाफ़े की दर कम होकर औसत पर आ जाती है। किसी भी समाज में सभी मालों का कुल मूल्य सभी मालों की कुल कीमत (प्राइसेज़) के बराबर होता है। लेकिन अलग-अलग कारबार में और उत्पादन के अलग-अलग विभागों में प्रतियोगिता के फलस्वरूप मालों का विक्रय उनके मूल्य के अनुसार नहीं होता वरन् उत्पादन की कीमतों के अनुसार होता है। ये कीमतें लगायी हुई पूंजी और औसत मुनाफ़े के जोड़ के बराबर होती हैं।

इस प्रकार मार्क्स ने मूल्य संबंधी नियम के आधार पर ही इस बात की व्याख्या की है कि कीमत और मूल्य में जो असंदिग्ध और अविवादास्पद भेद है, वह क्यों होता है और मुनाफे में समानता क्यों

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