त्साइटुङ' दृढ़ और पक्का रुख अपनाये था , युयुत्सु अंतर्राष्ट्रीयतावाद की उसकी नीति थी और उसमें प्रशा की सरकार और कोलोन के शासक- अधिकारियों के विरुद्ध राजनीतिक लेख प्रकाशित हुआ करते थे। अतः सामंती-राजवादी तथा उदार-पूंजीवादी समाचारपत्र और स्वयं सरकार भी बुरी तरह इसके पीछे पड़ी रही। मई १८४९ में प्रतिक्रांति ने आम चढ़ाई शुरू की और उस समय प्रशा की सरकार ने इस बात से लाभ उठाकर कि मार्क्स को प्रशा का नागरिकत्व नहीं दिया गया है, उन्हें प्रशा से निर्वासित करने का आदेश जारी किया। मार्क्स के निर्वासन और पत्र के अन्य संपादकों के विरुद्ध की गयी दमनात्मक कार्रवाइयों के कारण पत्र का प्रकाशन बंद हो गया। 'नोये राइनिशे त्साइटुङ' का अंतिम अर्थात् ३०१ वां अंक १६ मई, १८४६ को निकला। यह लाल स्याही में छपा हुआ था। मजदूरों से विदा लेते हुए संपादकों ने लिखा था कि "हमारे अंतिम शब्द सदैव और सर्वत्र यही रहेंगे : मजदूर वर्ग की मुक्ति! " 'नोये राइनिशे त्साइटुङ' के संबंध में देखिये , एंगेल्स का 'मार्क्स और 'नोये राइनिशे त्साइटुङ (१८४८-१८४९) शीर्षक लेख ।- पृष्ठ ८
बकूनिनवाद-म० अ० बकूनिन के नाम पर पहचानी जानेवाली एक प्रवृत्ति ।
बकूनिन अराजकतावाद का एक विचारक था और था मार्क्सवाद तथा
वैज्ञानिक समाजवाद का विक्षिप्त शत्रु । उसके अनुयायियों (बकूनिनवादियों)
ने मजदूर आंदोलन के मार्क्सवादी सिद्धांत और कार्यनीति के विरुद्ध
घोर संघर्ष किया। बकूनिनवाद के सिद्धांत का निचोड़ था सर्वहारा के
अधिनायकत्व सहित हर प्रकार के राज्य की अस्वीकृति और सर्वहारा
की विश्व-ऐतिहासिक भूमिका को समझ लेने की दृष्टि से उनका
दिवालियापन। बकूनिन ने वर्गों के “समानीकरण" का , नीचे से
"स्वतंत्र संस्थाओं" के एकीकरण का विचार प्रतिपादित किया।
बकूनिनवादियों की राय थी कि “विख्यात" व्यक्तियों की एक गुप्त
क्रांतिकारी संस्था जनता के विद्रोहों का मार्गदर्शन करे और ये विद्रोह
फ़ौरन किये जायें। इस प्रकार उनकी मान्यता थी कि रूसी किसान
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