मुद्रा, या मालों का परिचलन १२५ - . बुनकर का मन सामाजिक सम-विभाजन की एक मान्य शाखा तो हो सकता है, परन्तु यह बात उसके २० गव कपड़े की उपयोगिता की गारण्टी करने के लिये काक्री नहीं है। यदि समाज की कपड़े की प्रावश्यकता-और प्रत्येक दूसरी पावश्यकता की तरह इस प्रकार की प्रावश्यकता की भी एक सीमा होती है-प्रतिवंडी बुनकरों की पैराबार से पहले ही तृप्त हो गयी है, तो हमारे मित्र की पैदावार फालतू, अनावश्यक और इसलिये अनुपयोगी हो जाती है। यह तो सही है कि जब घोड़ा मुफ्त में मिलता हो, तो कोई उसके बात नहीं देखता, लेकिन हमारा मित्र लोगों को तोहके बांटने के लिये मनी में नहीं घूमता। लेकिन मान लीजिये कि उसकी पैदावार वास्तव में उपयोग मूल्य सिद्ध होती है और इस प्रकार मुद्रा को अपनी पोर माकर्षित कर लेती है। तब सवाल उठता है कि वह कितनी मुद्रा को अपनी पोर पाकर्षित करेगी? इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रश्न का उत्तर इस वस्तु के दाम के रूप में, अर्थात् उसके मूल्य के परिमाण के व्याख्याता के रूप में, पहले से ही दे दिया गया है। मूल्य का हिसाब लगाने में यदि हमारा मित्र प्राकस्मिक कोई गलती कर गया है, तो उसकी भोर हम यहां कोई ध्यान नहीं देंगे,-ऐसी गलती मंग में जल्दी ही क हो जाती है। हम यह भी माने लेते है कि उसने अपनी पैदावार पर केवल उतना ही मन-काल वर्ष किया है, जितना सामाजिक दृष्टि से मौसतन पावश्यक है। प्रतएव, बाम केवल उसके माल में भूतं होने वाले सामाजिक श्रम की मात्रा का मूल्य-नाम है। लेकिन हमारे बुनकर से पूछे बिना और उसके पीठ पीछे कपड़ा बुनने की पुराने ढंग की प्रणाली में परिवर्तन हो जाता है। वो मम-काल कल तक निस्सन्देह एक गड कपड़े के उत्पादन के लिये सामाजिक दृष्टि से प्रावश्यक वा, वह मान भावश्यक नहीं रहता। यह बात ऐसी है, जिसे मुद्रा का मालिक हमारे मित्र के प्रतिद्वन्नियों द्वारा बताये गये दामों के प्राचार पर सिद्ध करने के लिये अत्यन्त उत्सुक है। हमारे मित्र के दुर्भाग्य से बुनकर भी संस्था में बहुत बोड़े और दुर्लभ हों, ऐसी बात नहीं है। अन्त मेंमान लीजिये कि मन्जी में कपड़े के जितने भी टुकड़े मौजूद हैं, उनमें से किसी में भी सामाजिक दृष्टि से प्रावश्यक प्रम-काल से अधिक श्रम-काल नहीं लगा है। इसके बावजूद यह मुमकिन है कि कुल मिलाकर इन सब दुकड़ों पर पावश्यकता से अधिक प्रम-काल खर्च हो गया हो। यदि २ शिलिंग फ्री गन के सामान्य भाव पर सारा कपड़ा मन्दी में नहीं सप पाता, तो इससे यह साबित हो जाता है कि समाज के कुल बम का प्रावश्यकता से अधिक भाग बुनाई के रूप में खर्च कर गला गया है। इसका असर वही होता है, जो प्रत्येक अलग-अलग बुनकर द्वारा अपनी बास पैदावार पर सामाजिक दृष्टि से पावश्यक मम-काल से अधिक अन-काल वर्ष कर देने से होता है। यहां बह जर्मन कहावत लागू होगी कि "साप पकड़े गये, साथ ही लटका दिये गये"। मन्दी में जितना कपड़ा मौजूद है, वह सब केवल एक बाणिज्य-वस्तु गिना जाता है, जिसका हरेक दुकड़ा उसका केवल एक प्रशेष भाजक होता है। और सच पूछिये, तो हर एक-एक गव कपड़े का मूल्य भी सबातीय मानव-मन की एक सी, निश्चित एवं सामाजिक रूप से निर्धारित मात्रा का भौतिक म मात्र ही है।' . . . एन. एफ. डेनियलसन (निकोलाई -मन) के नाम २८ नवम्बर १८७८ के अपने पत्र में मार्स ने सुझाव दिया था कि इस वाक्य को यूं बदल दिया जाये : "और सच पूछिये , तो हर एक-एक गज कपड़े का मूल्य तमाम गजों के ऊपर खर्च किये गये सामाजिक श्रम के एक भाग का भौतिक रूप मान ही है।" 'पूंजी' के प्रथम खण्ड के दूसरे जर्मन संस्करण की
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