१५२ पूंजीवादी उत्पादन - गुणात्मक भेद का मुद्रा में लोप हो जाता है, उसी प्रकार मुद्रा, हर ऊंच-नीच बातम करके सब को बराबर बना देने वाली होने के नाते, अपनी पारी माने परहर तरह का भेद-भाव मिटा देती है"परन्तु मुद्रा खुद एक माल है, एक बार वस्तु है, जो किसी भी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति बन जाने की क्षमता रखती है। इस प्रकार, सामाजिक शक्ति प्रलग-अलग व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति बन जाती है। इसीलिए प्राचीन काल के लोग मुद्रा को पार्षिक एवं मैतिक व्यवस्था को भंग करने वाला समझते और उसकी भर्त्सना करते थे। माधुनिक समान, जिसने पैदा होते ही पाताल लोक के देवता प्लेटो - 1 "Gold yellow, glittering, precious gold! Thus niuch of this, will make black white; foul, fair; Wrong, right; base, noble; old, young; coward, valiant. What this, you gods? Why, this Will lug your priests and servants from your sides; Pluck stout men's pillows from below their heads; This yellow slave Will knit and break religions; bless the accurs'd; Make the hoar leprosy ador'd; place thieves, And give them title, knee and approbation, With senators on the bench; this is it, That makes the wappen'd widow wed again: Come damned earth, Thou common whore of mankind.” ["स्वर्ण, पीतवर्ण, ज्योतिर्मय , अद्भुत अमूल्य स्वर्ण ! रंच मान ही कर देता श्याम को जो दुग्ध-धवल, मसुन्दर को सुन्दर, अनुचित को उचित , घृणित को उतम, वृद्ध को युवा, कायर को वीर-प्रवर । ...सावधान , देवतामो! अरे यह? यह तो भक्तों और पुजारियों को तुमसे विलग कर देगा, वीर नर पुंगवों के शीश के नीचे से वस्त्र तक हटा देगा; पीतवर्ण क्रीत यह धर्मों की श्रृंखलाएं जोड़ेगा-तोड़ेगा, पाप-युक्त नर को मुक्ति-वर देगा, देगा रूप कोढ़-पस्त वृद्धा को अन्यतम रूपसी का, पदवी, पदक, सम्मान दस्युभों को देगा, पंक्ति में महामंत्रियों की उनको बिठा देगा; यही, हां, यही तो मांस-रक्त हीन विधवा को नववधू बना देगा। ...मा, उठ नीच धरती, मानव मात्र की कुत्सित रखेल प्रो!"] (Shakespeare, "Timon of Athens" [शेक्सपियर 'एर्षेसवासी टाइमोन]) LOSEvrupavepbrosav olovpropos Kakov voprope Epaort to to mal roles Clopoch, rod dvåpas tavlomnav Sopov. T68' tubtoooten wal kapalioon opbvas Xomoras após doxpa &vporous bynav, Ka santos tpyou eveot Belav ddtva
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१५५
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