मुद्रा, या मालों का परिचलन १५१ . . जोड़ने (nexus rerum) का काम करता है या जो सामाजिक बंधक होता है। उत्पादक की पावश्यकताएं बराबर अपना बबाव गलती और लगातार दूसरे लोगों का माल खरीदना मावश्यक बनाती रहती है। उपर उसके अपने सामान के उत्पादन और बिक्री में समय लगता है, और वह परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। इसलिए कुछ बेचे बिना कोई दूसरा खरीदने के लिए जरूरी है कि उसने पहले बिना कुछ खरीदे कुछ बेचा हो। यह किया जब माम तौर पर होने लगती है, तो ऐसा लगता है, मानो उसके भीतर एक विरोष निहित है। लेकिन बहुमूल्य धातुओं का उनके उत्पादन स्थलों पर अन्य मालों के साथ सीधा विनिमय होता है। और यहां (मालों के मालिक) विक्रय तो करते हैं, पर (सोने या चांदी के मालिक) क्रय नहीं करते। और बाद में दूसरे उत्पादकों द्वारा किये जाने वाले विक्रय पर साथ ही साप क्रय न करने का केवल यह परिणाम होता है कि नव-उत्पादित बहुमूल्य पातुएं मालों के तमाम मालिकों में बंट जाती हैं। इस तरह विनिमय की क्रिया के हर कदम पर सोने और चांदी की विभिन्न माकारों को अपसंचित राशियां इकट्ठी हो जाती हैं। किसी एक खास माल की शकल में विनिमय- मूल्य को सम्भाले रखने और जमा करने की सम्भावना पैदा होने पर सोने का लालच भी जन्म लेता है। परिचलन का विस्तार बढ़ने के साथ-साथ मुद्रा को-प्रर्थात् धन के उस सर्वथा सामाजिक रूप की, जो हर घड़ी व्यवहार में लाया जा सकता है,-शक्ति बढ़ती जाती है। "सोना एक पाश्चर्यजनक वस्तु है ! जिसके पास सोना है, वह जो भी चाहे, हासिल कर सकता है। सोने के द्वारा प्रात्मानों को स्वर्ग तक में भेजा जा सकता है" (१५०३ में जमैका से लिखे गये कोलम्बस के एक पत्र की उक्ति)। सोना चूंकि यह नहीं बताता कि कौनसी चीज उसमें रूपान्तरित हुई है, इसलिए हर चीज, चाहे वह माल हो या न हो, सोने में बदली जा सकती है। हर चीज बिकाऊ बन जाती है और हर चीज खरीदी जा सकती है। परिचलन वह महान सामाजिक भभका बन जाता है, जिसमें हर चीज गली जाती है और जिसमें से हर चीख सुवर्ण- स्फटिक बनकर बाहर निकल पाती है। यहां तक कि सन्तों की हड्डियां भी इस कीमियागरी के सामने नहीं ठहर पाती, और उनसे ज्यादा नाजुक "res sacrosanctae, extra commercium hominum" ("पवित्र वस्तुएं, जो मनुष्यों के व्यापारिक लेन-देन से बाहर होती हैं")तो इस कीमियागरी के सामने और भी कम व्हर पाती है। जिस प्रकार मालों के बीच पाये जाने वाले प्रत्येक "मुद्रा... एक बंधक होती है" (John Bellers, "Essays about the Poor, Manufactures, Trades, Plantations and Immorality" [जान बैलेर्स , 'गरीबों, कारखानों, व्यापार, बागानों और अनैतिकता के विषय में निबंध'], London, 1699, पृ० १३)। ३"निरपेक्ष" अर्थ में क्रय का मतलब यह होता है कि उसके लिए जो सोना और चांदी इस्तेमाल किये जाते हैं, वे मालों के बदले हुए रूप-या किसी विक्रय का फल-होते हैं। फ्रांस का अत्यन्त धर्म-भीरू ईसाई राजा हेनरी तृतीय खानकाहों को लूटता था और उनमें रखे हुए पवित्र अवशेषों को मुद्रा में बदलवा लेता था। फोकियन लोगों द्वारा देल्फी के मंदिर की लूट ने यूनान के इतिहास में जो भूमिका अदा की थी, वह तो सुविदित है ही। प्राचीन काल में मन्दिर मालों के देवतामों के निवास स्थानों का काम देते थे।वे "पवित्र बैंक" थे। फ़िनीशियन लोग सच्चे अर्थ में (par excellence) एक व्यापारी कौम थे। उनकी दृष्टि में द्रव्य हर चीज का तत्त्वांतरित रूप था। इसलिए उनके यहां यह सर्वथा उचित समझा जाता था कि प्रेम की देवी के समारोह के अवसर पर अपने पापको अजनबियों को भेंट कर देने वाली कुमारियां बदले में मिले हुए सिक्के को देवी को अर्पित कर दें। 11 . 3
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