मुद्रा, या मालों का परिचलन १५७ - मालों का मूल्य-म-मुद्रा-ही अब हर विकी का ध्येय और लक्ष्य है, और यह स्वयं परिचलन को किया से उत्पन्न होने वाली एक सामाजिक प्रावश्यकता के कारण है। खरीदार मालों को मुद्रा में बदलने के पहले मुद्रा को मालों में बदल गलता है। दूसरे शब्दों में, वह मालों के प्रथम रूपान्तरण के पहले ही उनका दूसरा रूपान्तरण सम्पन्न कर देता है। विक्रेता का माल परिचलन में भाग लेता है और उसका दाम भी मूर्त रूप प्राप्त कर लेता है, लेकिन केवल मुद्रा के ऊपर एक कानूनी दावे की शकल में। मुद्रा में बदले जाने के पहले ही वह एक उपयोग मूल्य में बदल दिया जाता है। उसका प्रथम रूपान्तरण केवल बार को सम्पन्न होता है।' किसी खास काल में जिन कनों का भुगतान करना खरूरी होता है, वे उन मालों के वामों के जोड़ का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी बिक्री के फलस्वरूप इन क्रों का जन्म हुमा है। इस रकम की अदायगी के लिए सोने की कितनी मात्रा मावश्यक होगी, यह सबसे पहले तो भुगतान के साधनों के चलन की तेजी पर निर्भर करता है। यह तेजी स्वयं दो बातों पर निर्भर करती है। एक तो देनदारों और लेनदारों के बीच जो सम्बंध होते हैं, उनसे एक तरह की श्रृंखला बन जाती है, जिससे कि जब 'क' को अपने बेनवार 'ख' से मुद्रा मिलती है तो वह उसे सीधे अपने लेनदार 'ग' को सौंप देता है, और यह कम इसी तरह चलता रहता है। दूसरी बात यह देलनी पड़ती है कि अलग-अलग कनों की प्रदायगी के लिए वो तारीख निश्चित हैं, उनमें समय का अन्तर कितना-कितना है। भुगतानों की-प्रथवा बीच में रोक दिये गये प्रथम रूपान्तरणों की-सतत श्रृंखला पान्तरणों के एक दूसरे से गुंथे हुए उन कमों से बुनियादी तौर पर भिन्न है, जिनपर हमने पीछे एक पृष्ठ पर विचार किया था। प्राहकों और विक्रेताओं के बीच जो सम्बंध होता है, वह चालू माध्यम के चलन के द्वारा केवल व्यक्त ही नहीं होता। इस सम्बंध का उदब भी केवल परिचलन में ही होता है, और उसी के भीतर उसका अस्तित्व भी होता है। इसके विपरीत, भुगतान के साधनों की हरकत एक ऐसे सामाजिक सम्बंध को व्यक्त करती है, जो बहुत पहले से ही मौजूद था। अनेक विनियां चूंकि एक ही समय पर और साथ-साथ होती है, इसलिए चलन की तेजी एक हब से ज्यादा सिक्के का स्थान नहीं ले सकती। दूसरी पोर, यही तव्य भुगतान के साधनों की बचत करने के लिए एक नयी प्रेरणा देता है। जिस अनुपात में बहुत से भुगतान एक स्थान पर केनित हो जाते हैं, उसी अनुपात में उनका परिसमापन करने के लिए खास तरह की . . 1१८५६ में मेरी जो पुस्तक प्रकाशित हुई थी, उसके निम्नलिखित उतरण से स्पष्ट हो जायेगा कि वर्तमान पुस्तक मूल पाठ में इसके एक विरोधी स्वरूप की कोई चर्चा में क्यों नहीं करता हूं : "इसके विपरीत, मु-मा क्रिया में मुद्रा का खरीद के वास्तविक साधन के रूप में हस्तांतरण हो सकता है, और इस तरह मुद्रा का उपयोग-मूल्य वसूल होने तथा माल के सचमुच खरीदार को मिलने के पहले ही माल का दाम वसूल किया जा सकता है। पूर्व-भुगतान की प्रचलित प्रथा के मातहत यह चीज बराबर होती रहती है। और अंग्रेज सरकार हिन्दुस्तान के किसानों से इसी प्रथा के अनुसार प्रफीम बरीदती है... लेकिन ऐसी सूरत में मुद्रा सदा खरीद के साधन का काम करती है... जाहिर है, पूंजी भी मुद्रा की शकल में ही पेशगी लगायी जाती है... किन्तु यह दृष्टिकोण साधारण परिचलन के क्षेत्र में नहीं पाता।" ("Zur Kritik der Politischen Oekonomier [पर्यशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास'], पृ० ११६, १२०।)
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