१५६ पूंजीवादी उत्पादन . शुरू में ये नयी भूमिकाएं उतनी ही माणिक और बारी-बारी से प्राने वाली होती है, जितनी किविता और प्राहक की भूमिकाएं, और यही अभिनेता अपनी-अपनी जगह उन्हें प्रदा करते हैं। मगर विरोष लगभग इतना ही सुलब नहीं है, और उसका स्फटिकीकरण हो जाना कहीं ज्यादा सम्भव होता है। किन्तु देनदार और लेनदार की ये भूमिकाएं मालों के परिवलन से स्वतंत्र स्म से भी उत्पन्न हो सकती है। प्राचीन काल के वर्ग-संघर्ष मुख्यतया देनदारों और लेनदारों के संघर्ष का रूप धारण कर लेते थे। रोम में इसी प्रकार का संघर्ष देनदार जन-साधारण के सत्यानाश के साथ समाप्त हुमा पा, और उनका स्थान गुलामों ने ले लिया था। मध्य युग में देनदारों और लेनदारों का संघर्ष सामन्ती देनदारों के सत्यानाश के साथ समाप्त हुमाया, जिनकी राजनीतिक सत्ता भी अपने प्रार्षिक पावार के साथ-साथ नष्ट हो गयी थी। फिर भी इन दो कालों में देनदार और लेनदार के बीच विद्यमान मुद्रा का सम्बंध केवल सम्बंधित वर्गों के अस्तित्व के लिए मावश्यक सामान्य प्रार्षिक परिस्थितियों के बीच पाये जाने वाले कहीं अधिक गहरे विरोष का ही प्रतिविम्ब पा। पाइये, अब फिर मालों के परिचलन को मोर लौट चलें। विक्री की निया के दो ध्रुवों पर माल और मुद्रा नामक दो सम-मूल्य अब एक साप प्रकट नहीं होते। प्रब मुद्रा पहले बिकने वाले माल का नाम निर्धारित करने में मूल्य की माप का काम करती है। सौदे में मो बाम से होता है, वह देनवार को जिम्मेवारी की माप होता है, यानी यह बताता है कि एक निश्चित तारीख को उसे मुद्रा के रूप में कितनी रकम प्रदा कर देनी पड़ेगी। दूसरे, मुद्रा य के भावगत साधन की तरह काम करती है। यद्यपि उसका अस्तित्व केवल प्राहक के भुगतान करने के बापदे में ही होता है, फिर भी वह माल को एक हाप से निकालकर दूसरे हाथ में पहुंचा देती है। भुगतान के लिए जो दिन निश्चित होता है, उसके पहले भुगतान का साधन सचमुच परिचलन में प्रवेश नहीं करता, उसके पहले वह प्राहक के हाथ से निकलकर विकता के हाथ में नहीं जाता। यहां चालू माध्यम अपसंचित धन में मान्तरित हो गया, क्योंकि पहली अवस्था के बाद किया बीच में ही पक गयी, और वह भी इसलिए कि माल का. परिवर्तित रूप यानी मुद्रा परिवलन के बाहर खींच ली गयी। भुगतान का माध्यम परिचलन में प्रवेश करता है, मगर केवल उसी बात, पब कि माल परिवलन के बाहर जा चुका होता है। अब मुद्रा क्रिया को क्रियान्वित करने वाला साधन नहीं है। अब वह विनिमय- मूल्य के अस्तित्व के निरपेक कप की तरह, या सार्वत्रिक माल की तरह सामने प्राकर, केवल पिया को समाप्त करती है। विता ने अपने माल को मुद्रा में इसलिए बबला कि अपनी कोई मावश्यकता पूरी कर सके: अपसंचय करने वाले ने यही काम इसलिए किया कि अपने माल को मुद्रा की शकल में रख सके, और देनदार ने इसलिए किया कि वह भुगतान कर सके, क्योंकि पदि वह भुगतान नहीं करेगा, तो कु-ममीन पाकर उसका मान नीलाम कर गलेगा। प्रतएप 1 १८ वीं सदी के शुरू में अंग्रेज व्यापारियों में देनदार और लेनदार के बीच कैसे सम्बंध थे, इसका वर्णन निम्न शब्दों में देखिये : "यहां इंगलैण्ड के व्यापारियों में निर्दयता की ऐसी क्रूर भावना पायी जाती है, जैसी न तो मनुष्यों के किसी पौर समाज में पायी जाती है और न संसार के किसी और राज्य में।" ("An Essay on Credit and the Bankrupt Act" ['उधार और दिवालिया कानून के विषय में एक निबंध'], London, 1707, पृ. २१)
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