मुद्रा, या मालों का परिचलन दुनिया की मुद्रा भुगतान के सार्वत्रिक सापन का काम करती है, बरीवारी के सार्वत्रिक सापन का काम करती है और सारी धन-दौलत के सार्वत्रिक मान्यता प्राप्त मूर्त स्म का काम करती है। मन्तरराष्ट्रीय लेन-देन की बकाया रामों को निबटाने के लिए भुगतान के साधन का काम करना उसका मुख्य काम होता है। इसीलिये व्यापार-संतुलन ही व्यापारवादियों का सिवान्त-निर्देशक शन है।' सोना और चांदी माल खरीदने के अन्तरराष्ट्रीय साधन का काम चांदी होती है। या इससे कम मात्रामों में चांदी तांबे, सीसे तथा अन्य कच्ची धातुओं में मिलती है, जिनको बोदकर निकालना वैसे भी लाभदायक होता है। केवल इतनी जानकारी ही यह समझने के लिए काफी है कि जहां सोना निकालने के लिए पहले से अधिक श्रम वर्ष होता है, वहां चांदी निकालने के लिए निश्चय ही पहले से कम श्रम खर्च होता है, और इससे स्वभावतया चांदी का मूल्य गिर गया है। यदि चांदी के दामों को इसके बाद भी बनावटी ढंग से ऊपर टांगकर न रखा जाता, तो उसके मूल्य में जो गिराव पाया है, वह दामों की इससे भी बड़ी घटती के रूप में व्यक्त होता। किन्तु अमरीका के चांदी के बड़े भण्डारों को तो अभी तक लगभग छुमा नहीं गया। इसलिए इस बात की बहुत सम्भावना है कि प्रभी बहुत समय तक चांदी का मूल्य बराबर गिरता ही जायेगा। इस गिराव को इस बात से और बढ़ावा मिला है कि रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों और विलास की चीजों के लिए अब चांदी की मांग अपेक्षाकृत कम हो गयी है, क्योंकि उसकी जगह चांदी का पता चढ़ी हुई वस्तुएं और अल्यू- मीनियम का सामान मादि इस्तेमाल होने लगे हैं। इस हालत में पाठक बद निर्णय करें कि यह विधातुवादी विचार कितना निराधार है कि चांदी का अन्तरराष्ट्रीय भाव जबर्दस्ती नियत करके उसके मूल्य को फिर १५ १/२:१ वाले उसके पुराने स्तर पर लाया जा सकता है। अधिक संभावना इस बात की है कि दुनिया की मंडियों में चांदी मुद्रा का काम करने से अधिकाधिक वंचित होती जायेगी।-के एं०] व्यापारवादी सम्प्रदाय एक ऐसा सम्प्रदाय था, जिसके लिए व्यापार का जमा बाक़ी सोने पौर चांदी में निपटाना ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का उद्देश्य था। उसके विरोधी खुद यह कतई नहीं समझ पाये थे कि संसार की मुद्रा का क्या कार्य है। मैंने रिकार्गे का उदाहरण देकर दिखाया है कि चालू माध्यम की मात्रा का नियमन करने वाले नियमों के विषय में गलत धारणा किस प्रकार बहुमूल्य धातुमों की अन्तर्राष्ट्रीय गति के विषय में उतने ही गलत विचार में प्रतिविम्बित होती है (कार्ल मार्क्स , उप० पु०, पृ० १५० और उसके मागे के पृष्ठ)। रिकारों का यह गलत सूत्र कि "प्रतिकूल व्यापार-संतुलन फालतू मुद्रा के सिवा कभी और किसी पीच से नहीं पैदा होता... सिक्के का निर्यात उसके सस्तेपन के कारण होता है, और वह प्रतिकूल संतुलन का प्रभाव नहीं, बल्कि कारण होता है," उसके पहले हमें बार्बोन की रचनाओं में मिलता है। बाबॉन ने लिखा है : "व्यापार-संतुलन यदि हो, तो वह मुद्रा को राष्ट्र के बाहर भेजने का कारण नहीं हो सकता। मुद्रा तो प्रत्येक देश में कलधौत के मूल्य में जो अन्तर होता है, उसके कारण बाहर भेजी जाती है" (N. Barbon, उप० पु०, पृ. ५६, ६०)। "The Literature of Political Economy, a classified catalogue, London, 1846" ["प्रशास्त्र का साहित्य , एक वर्गीकृत सूचीपन , मन्दन , १८४५'] में मैक्कुलक ने इस बात को रिकार्गे से पहले ही कह देने के लिए बार्बोन की प्रशंसा की है, लेकिन बावॉन ने उस गलत मान्यता को, जिसपर "चलार्य का सिद्धान्त" ("currency principle') माधारित है, जिन भोलेपन से भरे स्मों . .
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