पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१७०

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मुद्रा, या मालों का परिचलन १६७ . मिन्न-भिन्न सीमाओं तक हनम हो जायें, चलन की नालियों को भर में, सोने और चांदी के पिसे हुए सिक्कों का स्थान ग्रहण कर लें, विलास की वस्तुओं की सामग्री की पूर्ति करें और अपसंचित कोषों में बम जायें। इस पहली पारा को वे देश प्रारम्भ करते हैं, जो मालों में निहित अपने मन का सोना और चांदी पैदा करने वाले देशों के बहुमूल्य धातुओं में निहित श्रम के साथ विनिमय करते हैं। दूसरी पोर, परिचलन के विभिन्न राष्ट्रीय क्षेत्रों के बीच सोना और चांदी मागे-पीछे रहते हैं। इस पारा की गति विनिमय-घरों के कम में होने वाले अनवरत उतार-चढ़ाव पर निर्भर रहती है।' जिन देशों में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का एक निश्चित हद तक विकास हो गया है, वे बैंकों के कोषागारों में केनीभूत अपसंचित कोषों को उस अल्पतम मात्रा तक ही सीमित कर देते हैं, जो उनके विशिष्ट कार्यों को भली भांति सम्पन्न करने के लिए प्रावश्यक होती है। जब कभी ये अपसंचित कोष अपने प्रोसत स्तर से बहुत अधिक ऊपर चढ़ जाते हैं, तब कुछ अपवादों के साथ ये सदा इस बात के सूचक होते हैं कि मालों के परिचलन में व्हराव पैदा हो गया है और उनके रूपान्तरणों के सम-प्रवाह में कोई रुकावट मा गयी है। 1 «L'argent se partage entre les nations relativement au besoin qu'elles en ont... étant toujours attiré par les productions.” [“ get ret m ofta 3947 yen- अलग आवश्यकतामों के अनुपात में बंट जाती है ... क्योंकि वह सदा पैदावार की ओर प्राकर्षित होती है।"] (Le Trosne, उप : पु०, पृ० ११६ ।) "जो खानें लगातार सोना और चांदी देती रहती हैं, वे इतना अवश्य दे देती हैं, जो प्रत्येक राष्ट्र के लिए ऐसे आवश्यक बकाया की पूर्ति के लिए काफ़ी होता है।" (J. Vanderlint, उप • पु०, पृ. ४०।) ३"विनिमय-दरें प्रति सप्ताह चढ़ती और उतरती रहती हैं, और वर्ष में कुछ खास मौकों पर वे किसी राष्ट्र के बहुत प्रतिकूल हो जाती हैं और अन्य मौकों पर वे उसके प्रतिस्पर्धी देशों के उसी तरह प्रतिकूल हो जाती हैं।" (N. Barbon, उप. पु., पृ० ३९।) जब कभी सोने और चांदी को बैंक-नोटों के परिवर्तन के लिए कोष का भी काम करना पड़ता है, तब उनके इन विभिन्न कार्यों के एक दूसरे के साथ खतरनाक ढंग से टकरा जाने की आशंका पैदा हो जाती है। "घरेलू व्यापार के लिए जितनी मुद्रा की नितान्त अावश्यकता है , उससे अधिक जितनी भी मुद्रा है, वह निर्जीव धन है ... और जिस देश में ऐसी मुद्रा रखी जाती है, उसको मुद्रा के परिवहन से तथा प्रायात से जितना लाभ होता है , उसके सिवा और कोई लाभ ऐसी मुद्रा से नहीं होता।" (John Bellers, “Essays" [जान बैलेर्स , 'निबंध'], पृ. १३) 'यदि हमारे पास बहुत ज्यादा सिक्के हों, तो क्या हो? सबसे भारी सिक्कों को गलाकर हम सोने-चांदी के शानदार बर्तनों और पात्रों में बदल सकते हैं, या हम सिक्के को माल के रूप में वहां भेज सकते हैं, जहां उसकी आवश्यकता या इच्छा हो, और या जहां कहीं सूद की दर ऊंची हो, वहां हम उसे सूद पर उठा सकते हैं ।" (W. Petty, “Quantulumcunque concer. ning Money" [विलियम पेटी, 'मुद्रा के विषय में एक गुटका'], पृ. ३६ ।) राजनीति के शरीर की चर्बी होती है, उसका जरूरत से ज्यादा होना उसी तरह शरीर की फुर्ती में कमी कर देता है, जिस तरह उसका कम होना शरीर को बीमार डाल देता है ... जिस प्रकार चर्वी मांस-पेशियों की गति का स्नेहन करती है, खाद्य-पदार्थों के प्रभाव को दूर करती है, असम गुहामों को भरती है और शरीर को सुन्दर बनाती है, उसी प्रकार मुद्रा राज्य में उसके कार्य को वेग प्रदान करती है, देश में प्रभाव होने पर विदेश में मंगाकर राज्य को खिलाती-पिलाती है, हिसाब-किताब ठीक रखती है... और समष्टि को सुन्दर बनाती है, हालांकि खास तौर पर वह उन विशिष्ट व्यक्तियों को सुन्दर बनाती है, जिनके पास वह बहुतायत से होती है।" (W. Petty, “Political Anatomy of Ireland" [विलियम पेटी, 'मायरलैण्ड की राजनीतिक शरीर-रचना'], पृ० १४।) . 68 मुद्रा केवल . -