पूंजी का सामान्य सूत्र १७५ इस गति के सचेत प्रतिनिधि के रूप में मुद्रा का स्वामी पूंजीपति बन जाता है। उसका व्यक्तित्व, या कहना चाहिए कि उसकी बेब ही, वह बिन्नु है, वहां से मुद्रा यात्रा प्रारम्भ करती है और नहीं वह फिर लौट जाती है। परिचलन मु-मा-मु का बस्तुगत प्रापार प्रवा उसको मुख्य कमानी है मूल्य का विस्तार करना। वही उस व्यक्ति का मनोगत लक्ष्य बन जाता है। जिस हद तक कि अधिक से अधिक मात्रा में प्रमूर्त धन निरन्तर जमा करते जाना ही उसकी कार्रवाइयों का एकमात्र ध्येय बन जाता है, केवल उसी हद तक यह पूंजीपति के रूप में-या यूं कहिये कि चेतना-युक्त एवं इच्छा-युक्त मूर्तिमान पूंजी के रूप में कार्य करता है। अतः उपयोग- मूल्यों को पूंजीपति का वास्तविक लक्ष्य कभी न समझना चाहिये, और न ही किसी एक सौदे पर मुनाफा कमाना उसका लक्ष्य समझा जाना चाहिये। मुनाफा कमाने की अनवरत और मन्तहीन किया ही उसका एकमात्र लक्ष्य होती है। धन का यह कभी संतुष्ट न होने वाला लोभ, विनिमय-मूल्य की यह प्रबल लालसा' पूंजीपति और कंजूस में समान रूप से पायी जाती है। 1 * ऐसी कला का, जो किसी साध्य का साधन नहीं होती, बल्कि स्वयं साध्य होती है , लक्ष्य असीम होता है, क्योंकि वह लगातार उस साध्य के अधिक से अधिक निकट पहुंचने का प्रयत्न करती रहती है। दूसरी ओर, जिन कलामों का किसी साध्य के साधन के रूप में अभ्यास किया जाता है, वे सीमाहीन नहीं होतीं, क्योंकि खुद उनका लक्ष्य उनपर सीमा लगा देता है। पहली प्रकार की कलामों की भांति क्रेमाटिस्टिक का लक्ष्य भी सीमाहीन होता है, क्योंकि उसका लक्ष्य निरपेक्ष धन एकत्रित करना होता है। क्रमाटिस्टिक की नहीं, अर्थतन्त्र की एक सीमा होती है ... अर्थतन्त्र का लक्ष्य मुद्रा से भिन्न होता है, केमाटिस्टिक का लक्ष्य मुद्रा की वृद्धि करना होता है ... ये दो रूप कभी-कभी एक दूसरे से मिल जाते हैं; उनको पापस में गड़बड़ा देने के फलस्वरूप कुछ लोग मुद्रा को सुरक्षित रखने और उसमें असीम वृद्धि करते जाने को ही अर्थतन्त्र का लक्ष्य और ध्येय समझ बैठे हैं ।" (Aristoteles, “De Republica", Bekker का संस्करण, पुस्तक १, अध्याय ८, ९, विभिन्न स्थानों पर।) 'व्यापार करने वाले पूंजीपति का अन्तिम लक्ष्य माल ( यहां इस शब्द का प्रयोग उपयोग- मूल्यों के अर्थ में किया गया है ) नहीं होते ; उसका अन्तिम लक्ष्य मुद्रा होती है।" (Th. Chalmers, "On Political Economy etc." [टोमस चाल्मर्स 'अर्थशास्त्र प्रादि के विषय में '], दूसरा संस्करण , Glasgow, 1832, पृ० १६५, १६६ । ) 2 "Il mercante non conta quasi per niente il lucro fatto, ma mira sempre al futuro." [" व्यापारी जो मुनाफा कमा चुकता है, उसकी उसे बहुत कम परवाह होती है या बिल्कुल ही नहीं होती, क्योंकि वह तो सदा और मुनाफा कमाने की प्राशा में रहता 1"] (A. Genovesi, 'Lezioni di Economia Civile' (1765), staat weinfaut ft Custodi का संस्करण, Parte Moderna, ग्रंय ८, पृ. १३६ । ) "कभी न बुझने वाली नफ़े की चाह , वह auri sacra fames ( सोने की पवित्र भूख) पूंजीपतियों का सदा पथ-प्रदर्शन करती रहेगी।" (MacCulloch, "The Principles of Polit. Econ." [मैक्कुलक, 'अर्थशास्त्र के सिद्धान्त'], London, 1830, पृ० १७६ ।) परन्तु यही मैक्कुलक और उसी की तरह के अन्य लोग मसलन अति-उत्पादन के प्रश्न जैसी जब सैद्धान्तिक कठिनाइयों में फंस जाते हैं, तो वे इसी पूंजीपति को एक शीलवान् नागरिक बदल देते है, जिसे केवल उपयोग-मूल्यों को ही चिन्ता होती है और जिसमें यहां तक कि जूतों, टोपियों, .
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