पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१८६

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पूंजी के सामान्य सूत्र के विरोध १८३ .. - । ऐसे समाज में, जिसमें मालों के उत्पादन का अच्छी तरह विकास हो चुका है, प्रत्येक उत्पादक बुर अपने जीवन-निर्वाह के साधनों को पैदा करता है, और जितना. उसकी मावश्यकताओं से अधिक होता है, केवल उतना ही बह परिचलन में गलता है। फिर भी माधुनिक अर्थशास्त्री अक्सर काँक्लिक की बलीलों को बोहराया करते हैं,-खास तौर पर उस वक्त, जब उनको यह सिद्ध करना होता है कि मालों का विनिमय अपने विकसित रूप में, या यूं कहिये कि व्यापार में, अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है। उदाहरण के लिए देखिये : "व्यापार... पैदावार में मूल्य जोड़ देता है, क्योंकि उसी पैदावार का उत्पादक के हाथ में जितना मूल्य होता है, उपभोगी के हाथ में पहुंचकर उससे अधिक मूल्य हो जाता है। इसलिए व्यापार को असल में एक उत्पादन- कार्य ही समझना चाहिए। लेकिन मालों की कीमत.दो बार नहीं चुकायी जाती। ऐसा नहीं होता कि एक बार मालों के उपयोग-मूल्य कीमत चुकायी जाये और दूसरी बार उनके मूल्य.की। हालांकि माल का उपयोग-मूल्य विरता की अपेक्षा प्राहक के स्यावा काम में प्राता है, परन्तु उसका मुद्रा-रूप विक्रेता के लिए ज्यादा उपयोगी होता है। अन्यथा वह क्या उसे बेचने को तैयार होता? इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि पाहक, मिसाल के लिए, मोखों को. मुद्रा में बदलकर "वास्तव में एक उत्पावन-कार्य ही करता है।" यदि समान विनिमय-मूल्य के मालों का प्रववा मालों और मुद्रा का विनिमय किया जाता है, यानी यदि सम-मूल्यों का विनिमय किया जाता है, तो यह बात स्पष्ट है कि कोई भी मामी परिचलन में जितना. मूल्य गलता है, उससे अधिक मूल्य :बह उसमें से नहीं निकालता। इस तरह कोई अतिरिक्त मूल्य पैदा नहीं होता। अपने प्रकृत रूप में मालों का परिचलन सम- मूल्यों के विनिमय की मांग करता है। लेकिन, वास्तविक व्यवहार में, प्रक्रिया का. प्रकृत म कायम नहीं रहता। इसलिए माइये, प्रब हम गैर-सम-मूल्यों को विनिमय का प्राधार मानकर चलें। हर हालत में मालों की मण्डी में केवल मालों के मालिक ही पाते-जाते हैं, और ये लोग मापस में एक दूसरे को जितना अपने प्रभाव में ला पाते हैं, वह उनके मालों के प्रभाव के सिवा और कुछ नहीं होता। इन मालों की भौतिक विभिन्नता विनिमय-कार्य की भौतिक प्रेरणा का काम करती है और प्राहकों तथा विक्रेताओं को पारस्परिक ढंग से एक दूसरे पर निर्भर बना देती है क्योंकि उनमें से किसी के पास वह वस्तु नहीं होती, जिसकी उसे खुब प्रावश्यकता होती है,

. 1 une ... इसलिए ले बोस्ने अपने मित्र काँदिलैक को ठीक ही यह जवाब देते हैं कि "Dans société formée il n'y a pas de surabondant en aucun genre" ("forer तरह की प्रति-बहुतायत प्राप मानकर चलते है, वह विकसित समाज में नहीं होती")। साथ ही वह व्यंगपूर्ण ढंग से कहते हैं कि “यदि विनिमय करने वाले दोनों व्यक्तियों को समान मात्रा से ज्यादा मिलता है और दोनों को समान मात्रा से कम देना पड़ता है, तो दोनों को समान मात्रा ही मिलती है।" काँदिलैक को चूंकि विनिमय-मूल्य के स्वभाव का लेश मान भी मान नहीं है, इसीलिये श्री प्रोफेसर विल्हेल्म रोशेर ने उनको अपने बचकाने विचारों की अकाट्यता का जामिन बनने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति समझा है । देखिये Roscher की रचना “Die Grundlagen der Nationalökonomie, Dritte Auflage”, 1858 1 & S. R. Newman, "Elements of Political Economy" (grootoritat, 'प्रर्षशास्त्र के तत्त्व'). Andover and New York, 1835, पृ० १७५।