पूंजी के सामान्य सूत्र के विरोध १८५ यह मानकर व्याख्या की जा सकती है कि मालों को उनके मूल्य से अधिक में बेचा जाता है, और न ही यह मानकर कि मालों को उनके मूल्य से कम में परीक्षा पाता है।' कर्नन टोरेन्स की तरह प्रासंगिक बातों को बीच में लाकर भी समस्या को किसी तरह सुगम नहीं बनाया जा सकता। कर्नल टोरेन्स ने लिखा है: "प्रभावी मांग उसे कहते हैं, जब उपभोगियों में या तो सीपी और या पेचदार अदला-बदली के द्वारा मालों के लिए उनकी उत्पादन की लागत से अधिक बड़ी पूंजी का कोई भाग... देने की शक्ति एवं इच्छा (1) हो।" वहाँ तक परिचलन का सम्बंध है, उत्पादक और उपभोगी केवल विताओं और प्राहकों के रूप में ही मिलते हैं। यह दावा करना कि उत्पादक को नो अतिरिक्त मूल्य मिलता है, वह इस बात से पैदा होता है कि उपभोगी मालों के लिए उनके मूल्य से अधिक ये गलते हैं, यह तो दूसरे शब्दों में केवल यह कहने के समान है कि मालों के मालिक को विता के रूप में अधिक से अधिक महंगे दामों पर बेचने की विशेष सुविधा प्राप्त होती है। विक्रेता ने या तो खुब माल पैदा किया है और या वह उसके उत्पादक का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन प्राहक ने भी तो वह माल पैदा किया है, जिसका प्रतिनिधित्व उसकी मुद्रा करती है, या वह उस माल के उत्पादक का प्रतिनिधित्व करता है। उनमें अन्तर केवल यह है कि एक खरीदता है और दूसरा बेचता है। इस तव्य के द्वारा कि मालों का मालिक उत्पादक के रूप में उनको उनके मूल्य से अधिक में बेचता है और उपभोगी के रूप में बहुत अधिक दाम चुकाता है, हम एक कदम भी पागे नहीं बढ़ते। पुनांचे बो लोग इस धन के समर्षक है कि अतिरिक्त मूल्य दामों में नाम मात्र का चढ़ाव मा जाने से या विता को प्राप्त महंगे रामों पर बेचने की विशेष सुविधा से उत्पन्न होता है, उनको अपनी बातों में संगति पैदा करने के लिए यह मानकर चलना चाहिए कि कोई ऐसा 8 1 "Chaque vendeur ne peut donc parvenir à renchérir habituellement ses marchandises, qu'en se souniettant aussi à payer habituellement plus cher les marchandises des autres vendeurs; et par la même raison, chaque consoinmateur ne peut payer habituellerrient moins cher ce qu'il achète, qu'en se soumettant aussi à une diminution semblable sur le prix des choses, qu'il vend." [" catery एक नियमित घटना की तरह कोई विक्रेता अपना सामान जरूरत से ज्यादा ऊंचे दामों पर उस वक्त तक नहीं बेच सकता, जब तक कि वह अपनी बारी पाने पर नियमित घटना की तरह दूसरे विक्रेताओं के सामान के लिए जरूरत से ज्यादा ऊंचे दाम देने को तैयार न हो; और इसी कारण, कोई उपभोगी, वह जो कुछ बरीदता है, उसके लिए एक नियमित घटना की तरह जरूरत से ज्यादा नीचे दाम उस वक्त तक नहीं सकता, जब तक कि वह बद जो कुछ बेचता है, उसके लिए उतने ही कम दाम लेने के लिए न राजी हो।"] (Mercier de la Riviere, उप. पु., पृ० ५५५।)
- R. Torrens, "An Essay on the Production of Wealth" (HTTo TT,
'धन के उत्पादन पर एक निबंध'], (London, 1821, प.० ३४६।) "यह विचार निश्चय ही बहुत बेतुका है कि मुनाफ़ा उपभोगियों से मिलता है। ये Byutat ?" (G. Ramsay, "An Essay on the Distribution of Wealth" [जी० रैमषे, 'धन के वितरण के विषय में एक निबंध'], Edinburgh, 1836, प.० १८३।) .