पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१८९

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१८६ पूंजीवादी उत्पादन . . . वर्ग भी होता है, जो केवल खरीदता है और बेचता नहीं, यानी जो केवल उपमोग करता है और पैदा नहीं करता। अभी तक हम जिस दृष्टिकोण को अपनाये हुए है, उसके अनुसार, पानी साधारण परिवलन के दृष्टिकोण से, ऐसे किसी वर्ग की उपस्थिति की व्याल्या नहीं की जा सकती। किन्तु एक क्षण के लिए अभी से मान लीजिये कि कोई ऐसा वर्ग है। यह वर्ग जिस मुद्रा से लगातार परीवारियां कर रहा है, यह मुद्रा लगातार उसकी बेबों में पाती रहनी चाहिए, और यह मुद्रा बिना किसी विनिमय के, मुगत में, चाहे किसी कानूनी अधिकार के प्रताप से और चाहे लाठी के बोर से, पुर मालों के मालिकों की मेवों से निकलनी चाहिए। ऐसे किसी वर्ग के हाथों मूल्य से अधिक दामों में माल बेचना महक उस मुद्रा का एक अंश वापिस ले लेना है, जो पहले ही उसे देवी गयी थी। उदाहरण के लिए, एशिया-माइनर के बाहर प्राचीन रोम को वार्षिक विराग के रूप में मुद्रा दिया करते थे। और इस मुद्रा से रोम इन शहरों से विभिन्न प्रकार के माल खरीदा. करता था, और बहुत. महंगे दामों में खरीमा करता चा। एशिया माइनर के वासी व्यापार में रोमनों को बोला बेते थे, और इस तरह वे विराज के रूप में जो कुछ देते थे, उसका एक भाग व्यापार द्वारा अपने विजेताओं से वापिस ले लेते । फिर भी इस सब के बावजूद, असल में पराजित लोग ही बोला जाते थे। इस सब के बार भी उनके माल के नाम जुन उनकी अपनी मुद्रा से पुकाये जाते थे। यह न बनने का तरीका है और न अतिरिक्त मूल्य पैदा करने का। इसलिए हमको विनिमय की सीमाओं के भीतर ही रहना चाहिए, जहां पर विता प्राहक भी होते हैं. और ग्राहक विकता भी। सम्भव है कि हमारी कठिनाई इस बात से पैदा हुई हो कि हम अपने नाटक के पात्रों के साथ व्यक्तियों के बजाय मूर्तिमान पार्षिक परिकल्पनामों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। यह मुमकिन है कि 'क' इतना होशियार हो कि वह 'ग' से ज्यादा बाम बसूल कर ले और 'ब' या 'ग' उसका बदला न ले पायें। मान लीजिये कि 'क' .. को ४० पौण की शराब बेच देता है और उसके बदले में 'ब' से ५० पौण के मूल्य का अनाज ले लेता है। इस तरह 'क' अपने ४० पौष को ५० पौस में बदल गलता है, कम मुद्रा से यादा मुद्रा कमा लेता है और इस तरह अपने मालों को पूंजी में बदल लेता है। भाइये, इस घटना की थोड़ी और गहराई में जाकर विचार करें। विनिमय के पहले 'क' के पास ४० पोम की कीमत की शराब पी और 'ब'के पास ५० पौडकी कीमत का अनाजपा, यानी दोनों के पास कुल मूल्य १० पौम के बराबर पा। विनिमय के बाद भी यह कुल मूल्य बही 14 'जब किसी पादमी को मांग की भावश्यकता होती है, तब क्या मि. माल्यूस उसे यह सलाह देते हैं कि किसी और पादमी को थोड़ा पैसा दे दो, ताकि वह तुम्हारा सामान खरीद ले?"- यह सवाल रिकार्गे का एक कुछ शिष्य माल्यूस से करता है, जिसने अपने शिष्य पादरी चाल्मर्स की तरह प्रर्वतन्त्र के क्षेत्र में विशुद्ध ग्राहकों या विशुद्ध उपभोगियों के इस वर्ग के महत्त्व का गुणगान किया है। (देखिये "An Inquiry into those Princip- les respecting the Nature of Demand and the Necessity of Consumption, lately advocated by Mr. Malthus etc.' ['मांग के स्वभाव तथा उपभोग की पावश्यकता के विषय में उन सिद्धान्तों की समीक्षा, जिनका हाल में .मि. माल्यूस ने प्रतिपादन किया है, इत्यादि'], London, 1821, पृ० ५५।)