अतिरिक्त मूल्य की दर २४३ . मूल्य उत्पन्न करता है, वह केवल मूल अस्थिर पूंजी का स्थान ले लेता है। इसी कारण तीन शिलिंग के इस नये मूल्य का उत्पादन महब पुनवत्पादन जैसा मालूम होता है। इसलिए कार्य- दिवस के जिस हिस्से में यह पुनरुत्पादन होता है, उसे में "मावश्यक" श्रम-काल कहता हूं, और इस काल में खर्च किये जाने वाले श्रम को मैं "प्रावश्यक " मम कहता हूं।' वह मजदूर के दृष्टिकोण से मावश्यक होता है, क्योंकि वह उसके श्रम के विशिष्ट सामाजिक रूप से स्वतंत्र होता है। और वह पूंजी तथा पूंजीपतियों के संसार के दृष्टिकोण से भी आवश्यक होता है, क्योंकि मजदूर के अस्तित्व के कायम रहने पर ही उनका अस्तित्व भी निर्भर करता है। श्रम-प्रक्रिया के दूसरे भाग में, पानी भम-प्रक्रिया के उस भाग में, जिसमें मजदूर का भम मावश्यक श्रम नहीं होता, यह तो सब कि मजदूर श्रम करता है, अर्थात् श्रम-शक्ति खर्च करता है, लेकिन उसका अम चूंकि अब पावश्यक भन नहीं होता, इसलिए वह अब खुद अपने लिए मूल्य पैदा नहीं करता। अब वह अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है, और पूंजीपति के लिए उसका माकर्षण शून्य में से पैदा की गयी किसी चीन के समान ही होता । काम के दिन के इस हिस्से को मैंने अतिरिक्त प्रम-काल का नाम दिया है, और इस काल में जो भम खर्च किया है, उसे मैंने अतिरिक्त श्रम (surplus labour) का नाम दिया है। जिस प्रकार मूल्य को समुचित ढंग से समझने के लिए उसे इतने घण्टों के श्रम का जमाव मात्र समझना आवश्यक है और जरूरी है कि उसे मूर्त रूप प्राप्त श्रम के सिवा और कुछ न समझा जाये, गैक उसी प्रकार अतिरिक्त मूल्य को समझने के लिए यह जरूरी है कि उसे अतिरिक्त अम-काल का जमाव मात्र समझा जाये और उसे मूर्त रूप प्राप्त प्रतिरिक्त श्रम के सिवा और कुछ न माना जाये। समाज के विभिन्न प्रार्षिक स्पों का मूल अन्तर- उदाहरण के लिए, वास- मम पर भाषारित समाज और मजदूरी पर भाषारित समाज का मूल अन्तर-केवल इस बात पर निर्भर करता है कि वास्तविक उत्पादक से, अर्थात् मजदूर से, यह अतिरिक्त मम किस उंग से निचोड़ा जाता है। जाता . - इस रचना में अभी तक हमने "मावश्यक श्रम-काल" का प्रयोग उस श्रम-काल के लिए किया है, जो किन्हीं खास सामाजिक परिस्थितियों में किसी माल के उत्पादन के लिए एवश्यक होता है। मागे से हम उस श्रम-काल के लिए भी इस नाम का प्रयोग करेंगे, जो श्रम-शक्ति नामक एक खास माल के उत्पादन के लिए प्रावश्यक होता है। किसी एक पारिभाषिक शब्द को अलग-अलग प्रों में प्रयोग करना असुविधा का कारण हो सकता है, लेकिन ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जिसमें इस चीज से एकदम बचा जा सके। उदाहरण के लिए, गणित की निम्न शाखामों से उसकी उच्च शाखाओं की तुलना कीजिये। हे विल्हेल्म प्यूसिडिडीज़ रोश्चेर ने एक महान आविष्कार किया है। उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है कि यदि, एक तरफ़, आजकल अतिरिक्त मूल्य या अतिरिक्त पैदावार का निर्माण और उसके फलस्वरूप पूंजी का संचय पूंजीपति की मितव्ययिता के कारण होता है, तो, दूसरी तरफ़, सभ्यता की निम्न अवस्थाओं में बलवान निर्बल को बचाने के लिए मजबूर करता है। (उप० पु०, पृ० ७८1) क्या बचाने के लिए? श्रम? या वह फालतू धन, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है ? क्या वजह है कि रोश्चेर जैसे लोग अतिरिक्त मूल्य की उत्पत्ति का कारण बताने के लिए केवल पूंजीपति के न्यूनाधिक युक्तिसंगत प्रतीत होने वाले बहानों को बस दोहरा भर देते हैं ? इसकी वजह उनके वास्तविक प्रज्ञान के अतिरिक्त यह है कि कुछ . 16*
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