पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२६४

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काम का दिन २६१ के साप ' ग' के अनुपात से मालूम हो जाती है। पर जो तीन अलग-अलग काम के दिन दिये गये हैं, उनमें क्रमशः यह बर १६६ ५० और १०० प्रतिशत है। दूसरी मोर, अकेली अतिरिक्त मूल्य की पर से हम यह नहीं जान सकते कि काम का दिन कितना लम्बा है। मिसाल के लिये, यदि यह दर १०० प्रतिशत हो, तो काम का दिन ८ घन्टे, १० घन्टे पौर १२ घण्टे या उससे ज्यादा का भी हो सकता है। इस बर से तो हम सिर्फ इतना ही जान पायेंगे कि काम के दिन के दो संघटक भाग-मावश्यक भम-काल और अतिरिक्त श्रम-काल-लम्बाई में बराबर है। परन्तु इन दो संघटक भागों में से प्रत्येक कितना लम्बा है, यह इस दर से मालूम नहीं हो पायेगा। प्रतएव, काम का दिन कोई स्थिर मात्रा नहीं, बल्कि एक अस्थिर मात्रा होता है। उसका एक भाग निश्चय ही स्वयं मजदूर की मम-शक्ति के पुनरुत्पादन के लिये प्रावश्यक श्रम-काल से निर्धारित होता है। लेकिन यह पूरी मात्रा अतिरिक्त भम की अवधि के साथ-साथ बदलती रहती है। इसलिये काम के बिन को निर्धारित तो किया जा सकता है, लेकिन वह खुब अपने में अनिश्चित होता है। यपि काम का दिन कोई निश्चित नहीं, बल्कि एक परिवर्तनशील मात्रा होता है, फिर भी, दूसरी ओर, यह बात भी सही है कि उसमें कुछ खास सीमानों के भीतर ही परिवर्तन हो सकते हैं। किन्तु उसकी अल्पतम सीमा को निश्चित नहीं किया जा सकता। जाहिर है, अगर विस्तार-रेखा 'खग' को, या अतिरिक्त श्रम को, शून्य के बराबर मान लिया जाये, तो एक अल्पतम सीमा मिल जाती है। अर्थात् दिन का वह भाग, जिसमें मजदूर को खुब अपने जीवन-निर्वाह के लिये लाजिमी तौर पर काम करना पड़ता है, उसके काम के दिन की अल्पतम सीमा हो जाता है। लेकिन पूंजीवादी उत्पादन के प्राधार पर यह मावश्यक भम काम के दिन का केवल एक भाग ही हो सकता है। जुन काम का दिन इस पल्पतम सीमा में कमी परिणत नहीं किया जा सकता। दूसरी पोर, काम के दिन की एक अधिकतम सीमा होती है। उसे एक बिन्नु से मागे नहीं खींचा जा सकता। यह अधिकतम सीमा दो बातों से निर्धारित होती है। पहली बात अम-शक्ति की शारीरिक सीमा है। प्राकृतिक बिन के २४ घण्टों में मनुष्य अपनी शारीरिक जीवन-शक्ति को केवल एक निश्चित मात्रा ही खर्च कर सकता है। इसी तरह एक घोड़ा भी हर दिन तो केवल ८ घन्टे ही काम कर सकता है। दिन के एक भाग में इस शक्ति को विधाम करना चाहिये, सोना चाहिये। एक और भाग में पावमी को अपनी अन्य शारीरिक पावश्यकताओं को पूरा करना चाहिये ; उसे भोजन करना, नहाना और कपड़े पहनना चाहिये। इन विशुद्ध शारीरिक सीमाओं के अलावा काम के दिन को लम्बा सींचने के रास्ते में कुछ नैतिक सीमाएं भी सकावट गलती हैं। अपनी बौद्धिक तवा सामाणिक पावश्यकताओं को पूरा करने के लिये भी मजदूर को समय चाहिये, और इन मावश्यकताओं की संख्या तथा विस्तार समाज की सामान्य प्रगति द्वारा निर्धारित होते हैं। . "एक दिन का श्रम अस्पष्ट वस्तु है , वह लम्बा भी हो सकता है और छोटा भी।" ("An Essay on Trade and Commerce, Containing Observations on Taxes, &c." ['व्यापार और वाणिज्य पर एक निबंध, जिसमें करों के विषय में कुछ टिप्पणियां भी सम्मिलित है, इत्यादि'], (London, 1770, पृ. ७३।)