२४ भूमिका . प्रतएव, बर्मन समाज का ऐतिहासिक विकास जिस विशेष ढंग से हुआ है, वह उस देश में पूंजीवादी अर्थशास्त्र के क्षेत्र में किसी भी प्रकार के सृजनात्मक कार्य को तो इजाजत नहीं देता, पर उस अर्थशास्त्र की मालोचना करने की छूट दे देता है। जिस हब तक यह मालोचना किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, उस हब तक वह केवल उसी वर्ग का प्रतिनिधित्व कर सकती है, जिसको इतिहास में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का तन्ता उलट देने और सभी वर्गों को अन्तिम रूप से मिटा देने का काम मिला है, अर्थात् उस हब तक वह केवल सर्वहारा वर्ग का ही प्रतिनिधित्व कर सकती है। जर्मन पूंजीपति-वर्ग के पंडित और प्रपंरित प्रवक्तामों ने शुरू में 'पूंजी'('Das Kapital")- को खामोशी के बरिये मार गलने की कोशिश की। वे मेरी पहले वाली रचनाओं के साथ ऐसा ही कर चुके थे। पर ज्यों ही उन्होंने यह देखा कि यह चाल अब समय की परिस्थितियों से मेल नहीं पाती, त्यों ही उन्होंने मेरी किताब को पालोचना करने के बहाने "पूंजीवादी मस्तिष्क को शान्त करने" के नुसखे लिखने शुरू कर दिये। लेकिन मजदूरों के अखबारों के रूप में उनको अपने से शक्तिशाली विरोधियों का सामना करना पड़ा,-मिसाल के लिये, "Volksstaat" में बोलेक बीत्स्गेन के लेखों को देखिये,-और उन का बवाब नहीं दे पाये है। "Das Rapttat" का एक बहुत अच्छा स्सी अनुवाद १८७२ के बसन्त में प्रकाशित हुमा था। ३,००० प्रतियों का यह संस्करण लगभग समाप्त भी हो गया है। कियेव विश्वविद्यालय में प्रशास्त्र के प्रोफेसर एन० बोवेर मे १८७१ में ही अपनी रचना 'विर रिकारों का मूल्य का और पूंजी का सिद्धान्त' में मूल्य, मुद्रा और पूंजी के मेरे सिद्धान्त का विक किया था और कहा था कि जहां तक उसके सार का सम्बंध है, यह सिद्धान्त स्मिथ और रिकारों की सील का पावश्यक निष्कर्ष है। इस सुन्दर रचना को पढ़ने पर जो बात पश्चिमी योरप के पाठकों को पाश्चर्य में गल देती है, वह यह है कि विशुद्ध सैद्धान्तिक प्रश्नों पर लेखक का बहुत ही सुसंगत पौर बड़ अधिकार है। माज तक . . 1जर्मनी के घटिया किस्म के अर्थशास्त्र के चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले बकवासियों ने मेरी पुस्तक की शैली की निन्दा की है। "Das Kapital" के साहित्यिक दोषों का जितना महसास मुझे है , उससे ज्यादा किसी को नहीं हो सकता। फिर भी मैं इन महानुभावों के तथा उनको पढ़ने वाली जनता के लाभ और मनोरंजन के लिये इस सम्बंध में एक अंग्रेजी तथा एक रूसी समालोचना को उद्धृत करूंगा। "Saturday Review" ने , जो मेरे विचारों का सदा विरोधी रहा है , पहले संस्करण की मालोचना करते हुए लिखा था: "विषय को जिस ढंग से पेश किया गया है, वह नीरस से नीरस मार्थिक प्रश्नों में भी एक अनोखा पाकर्षण पैदा कर देता है।" 'सेंत पीतर्सबुर्ग जर्नल' ('साक्त-पेतेरबुर्ग स्किये वेदोमोस्ती') ने अपने २० अप्रैल १८७२ के अंक में लिखा :: “एक-दो बहुत ही खास हिस्सों को छोड़कर विषय को पेश करने का ढंग ऐसा है कि वह सामान्य पाठक की भी समझ में पा जाता है, खूब साफ़ हो जाता है और वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत जटिल होते हुए भी प्रसाधारण रूप से सजीव हो उठता है। इस दृष्टि से लेखक... अधिकतर जर्मन विद्वानों से बिल्कुल भिन्न है, जो... अपनी पुस्तकें ऐसी नीरस और दुल्ह भाषा में लिखते हैं कि साधारण इनसानों के सिर तो उनसे टकराकर ही टूट जाते हैं।"
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२७
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