पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/२८२

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काम का दिन २७९ २ ... . . . शाम को ४.३० बजे ही खतम हो जाता है और उसके बाद का सारा काम प्रोवरटाइम होता १ है।"1 (क्या यह मि. स्मिय खुद भी इन १० घन्टों में भोजन नहीं करते? ) "हम लोग (वही स्मिव साहब बोल रहे हैं) शाम ६ बनने के पहले शायद कभी ही काम बन्द करते है (मतलब यह कि "हम" शायद कभी ही "अपनी" श्रम-शक्ति की मशीनों का उपयोग करना बन्द करते हैं)। नतीजा यह होता है कि असल में हम लोग (यानी वही मि० स्मिथ) (iterun Crispinus) साल भर प्रोवरटाइम काम करते रहते हैं इन तमाम लोगों को, जिनमें बच्चे और बड़े बोनों शामिल है (जिनमें १५२ बच्चे तथा लड़के और १४० बयस्क लोग हैं), पिछले मारह महीने से हर सप्ताह मौसतन कम से कम ७ दिन और ५ घण्टे, या ७८ घन्टे प्रति सप्ताह, काम करना पड़ा है। इस वर्ष (१८६२) की २ मई को जो छ: सप्ताह समाप्त हुए, उनका प्रोसत इससे भी ज्यादा बता पा, यानी इन छ: सप्ताहों में उन्हें प्रति सप्ताह ८ दिन-या ८४ घण्टे-काम करना पड़ा। फिर भी यह मि. स्मिथ, जिनको pluralls majestatis (बहुवचन का प्रयोग करने) का इतना ज्यादा शौक है, मुस्कराते हुए फरमाते हैं कि "मशीन का काम बहुत मुश्किल नहीं होता।" इसी तरह ब्लाकों से कागज की छपाई करने वाले कारखानों के मालिक कहते हैं कि "हाप का काम मशीन के काम से अधिक स्वास्थ्यप्रद होता है।" कुल मिलाकर, सभी मालिक गुस्से से बौखला उठते है, बब कोई व्यक्ति "कम से कम भोजन के समय मशीनों को रोक देने" का सुझाव रखता है।बरो के दीवार पर मढ़ने का कापस तैयार करने वाले एक कारखाने के मैनेजर मि० पाटेने ने कहा है कि यदि इस तरह का कोई नियम बन जाये, "जिसके अनुसार, मान लीजिये, सुबह ६ बजे से रात के एबजे तक काम कराया जा सके,.. तो हम लोगों को (1) बड़ी सुविधा हो जाये, लेकिन सुबह ६ बजे से शाम के ६ बजे तक का समय फैक्टरी में काम लेने के लिए उपयुक्त नहीं है। हमारी मशीन भोजन के लिए हमेशा रोक दी जाती है (क्या कहने मापकी उदारता के!)। इससे काग्रज और रंग की कमी कोई खास हानि नहीं होती। लेकिन,"- वह मागे बड़ी सहायता के साथ कहते हैं,-"समय का नुकसान यदि लोगों को पसन्द नहीं पाता, तो मैं इस बात को समझ सकता हूं।" कमीशन की रिपोर्ट में बड़े भोलेपन के साथ यह मत प्रकट किया गया है कि कुछ प्रमुख कम्पनियों" को समय सोने का, यानी दूसरों का मन हड़पने के लिए समय न पाने का और इसलिए मुनाफा . . . 1 इसका वही अर्थ नहीं लगाना चाहिए, जो हमारे अतिरिक्त श्रम-काल का होता है। ये महानुभाव १० षष्टे के श्रम को काम का सामान्य दिन समझते हैं, जिसमें , जाहिर है, सामान्य प्रतिरिक्त श्रम भी शामिल होता है। इसके बाद “मोवरटाइम" शुरू होता है, जिसकी मजदूरी कुछ बेहतर दर पर दी जाती है। बाद को यह बात स्पष्ट होगी कि तथाकषित सामान्य दिन में जो श्रम वप होता है, मजदूर को उसके लिए कम मूल्य दिया जाता है और इसलिए "प्रोवरटाइम" महज मजदूर से थोड़ा और अतिरिक्त श्रम कराने का एक पूंजीवादी हपकंडा होता है। यदि काम के सामान्य दिन में वर्ष की गयी श्रम-शक्ति की उचित मजदूरी दे भी दी जाये, तब भी "प्रोवरटाइम" मजदूर से अतिरिक्त श्रम कराने की तरकीब ही रहेगा।