पूंजीवादी उत्पादन ऐसे जाल कानून लागू कर दिये गये, जिनके मातहत पहले उद्योग में लड़के-लड़कियों तथा स्त्रियों से रात को (रात के ८ बजे से सुबह के ६ बजे तक) काम लेने की मनाही कर दी गयी और दूसरे उद्योग में १८ वर्ष से कम उम्र के रोटी बनाने वाले कारीगरों से रात के बजे से सुबह के ५ बजे तक काम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसी कमीशन ने बाद को कुछ ऐसे सुझाव दिये थे, जिनसे इस बात की पाशंका पैदा हो गयी थी कि सेती, सानों पौर परिवहन के साधनों को छोड़कर इंगलैग में उद्योग की बाकी सभी महत्त्वपूर्ण शालाओं की "स्वतंत्रता" खतम हो जायेगी। इन सुझावों का हम बाद में बिक करेंगे। अनुभाग ७-कामं के सामान्य दिन के लिये संघर्ष। . अंग्रेजी फ़ैक्टरी-कानूनों की दूसरे देशों में प्रतिक्रिया पाठक को यह बात याद होगी कि अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करना, या किसी न किसी तरह अतिरिक्त श्रम चूसना, पूंजीवादी उत्पादन का विशिष्ट लक्ष्य एवं उद्देश्य और उसका सार-सत्व होता है। श्रम के पूंजी के प्राचीन हो जाने के फलस्वरूप उत्पादन की प्रणाली में अधिक देखी जाती हैं, वे हैं तपेदिक, सांस की नलियों पर वर्म आ जाना, गर्भाशय का ठीक तरह से काम न करना, अपने प्रत्यधिक उग्र रूप में हिस्टीरिया और गठिया। ये सारी बीमारियां, मेरे ख़याल से, या तो प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से उन कमरों की गन्दी और गरम हवा के कारण होती हैं जिनमें मजदूरिनों को काम करना पड़ता है, और उनकी दूसरी वजह यह है कि मजदूरिनों के पास काफ़ी और पाराम-देह कपड़े नहीं होते , जो जाड़ों में घर लौटते समय ठण्डी और नम हवा से उनकी रक्षा कर सकें।" ( उप. पु., पृ० ५६-५७।) १८६३ के अनुपूरक क़ानून के बारे में, जो कि खुली हवा में कपड़े सफ़ेद करने वाले कारखानों के मालिकों के विरोध के बावजूद पास हुआ था, फैक्टरी-इंस्पेक्टरों ने लिखा है : “यह कानून न केवल मजदूरों को वह संरक्षण देने में असफल रहा है , जो ऊपर से देखने में वह उनको देता है, बल्कि उसमें स्पष्टतया एक ऐसी धारा भी है, जिसकी शब्दावली कुछ इस प्रकार की प्रतीत होती है कि जब तक मजदूर रात को ८ बजे के बाद काम करते हुए नहीं पकड़े जाते, तब तक उनको किसी प्रकार का भी संरक्षण नहीं मिल सकता, और यदि वे रात को ८ बजे के बाद काम भी करते हैं, तो इसका सबूत देने का तरीका इतना त्रुटिपूर्ण है कि मुकदमे में मुश्किल से ही सजा हो पाती है।" (उप० पु०, पृ. ५२।) 'इसलिये, यह कानून यदि जन-कल्याण एवं जन-शिक्षा के किसी उद्देश्य से बनाया गया था, तो सभी दृष्टियों से वह असफल सिद्ध हुआ है। कारण कि स्त्रियों और बच्चों को भोजन की छुट्टी के साथ या उसके बिना ही १४ घण्टे रोजाना या शायद उससे भी ज्यादा काम करने की इजाजत दे देना-जिसका मतलब होता है उनको १४ घण्टे रोजाना या उससे भी ज्यादा काम करने के लिये मजबूर करना- और इस बात में न तो उम्र की किसी सीमा को मानना, न स्त्री और पुरुष में कोई भेद करना और न ही ऐसे कारखानों (कपड़े सफ़ेद करने और रंगने के कारखानों) के पड़ोस-पड़ोस में रहने वाले परिवारों के सामाजिक रीति-रिवाजों का कोई खयाल करना - यह, जाहिर है , जन-कल्याण करना नहीं समझा जा सकता।" ("Re- ports, &c., for 30th April, 1863" ["रिपोर्ट, इत्यादि, ३० अप्रैल १८६३ '], पृ. ४०।) 1दूसरे संस्करण में जोड़ा गया कुटनोट: यह अंश मैंने १८६६ में लिखा था। तब से फर कुछ प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो गयी है। - . -
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