पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३४०

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काम का दिन ३३७ . बच्चों की नौकरी से सम्बंधित कमीशन की पहली रिपोर्ट (१९६३) का परिणाम यह हुमा कि हर तरह की मिट्टी की बी बनाने वाले (केवल मिट्टी के बर्तन बनाने वाले ही नहीं), विपासलाइयां बनाने वाले, कारतूसों की टोपियां और कारतूस बनाने वाले, झालीन बनाने बाले, फ्रस्टियन कपड़ा काटने वाले (ustion cutting) और "finishing' (फिनिश करना) कहलाने वाली अन्य अनेक पियानों को करने वाले कारखानों का भी यही हाल हुआ। १८६३ में मुली हवा में कपड़े सक्रर करने और रोटी बनाने के उद्योगों पर कुछ . . Court of Common Pleas (दीवानी मुकदमे निपटाने वाली अदालत ) में इस मक्कारी पर अपनी मुहर लगा दी। फैक्टरी-इंस्पेक्टरों की एक रिपोर्ट में लिखा है : “मजदूरों को इससे बड़ी निराशा हुई है ... वे शिकायत करते है कि उनसे प्रत्यधिक काम लिया जाता है, और यह बहुत खेद की बात है कि एक परिभाषा में थोड़ी सी बुटि रह जाने के कारण कानून का स्पष्ट उद्देश्य धूल में मिल जाता है।" ( उप. पु., पृ० १८।) 1"खुली हवा में कपड़े सफेद करने वाले कारखाने". यह मूग बहाना बनाकर १८६० के कानून से बच गये थे कि उनमें औरतें रात को काम नहीं करतीं। फैक्टरी-इंस्पेक्टरों ने इस झूठ का भण्डाफोड़ किया और साथ ही मजदूरों ने दरखास्तें देकर संसद की यह गलतफहमी दूर कर दी कि खुली हवा में कपड़े सफ़ेद करने वाले कारखानों में पास के मैदानों की ठण्डी हवा का वातावरण रहता है। इस प्रकार के कारखानों में कपड़े सुखाने के कमरों में ६० से १०० डिगरी फेरनहाइट [३२ से ३८ डिगरी सेंटीग्रेड] तक का तापमान रहता था, और उनमें ज्यादातर लड़कियां काम करती थीं। ये लड़कियां कभी-कभार सुखाने के कमरों से बाहर ताजा हवा में निकल पाती थीं; इसके लिये “cooling" (ठण्डा होना) शब्दावली का प्रयोग किया जाता था। फैक्टरी-इंस्पेक्टरों की एक रिपोर्ट में लिखा है: “पन्द्रह लड़कियां भट्ठियों में काम करती हैं। लिनेन के लिये यहां ८० से १० डिगरी [२७ से ३२ डिगरी सेंटीग्रेड ] तक की और कमिक के लिये १०० डिगरी [३८ डिगरी सेंटीग्रेड ] तथा उससे ज्यादा की गरमी रहती है। १० वर्ग-फ्रीट के एक छोटे से कमरे में, जिसके बीचोंबीच एक बन्द भट्ठी होती है, बारह लड़कियां इस्तरी और तह करती रहती हैं। भट्ठी में से भयानक गरमी निकलती रहती है, और लड़कियां उसके इर्द-गिर्द खड़ी हुई कैमिक को जल्दी से सुखा-सुखाकर इस्तरी करने वाली लड़कियों को देती जाती है। इन मजदूरिनों के काम के घण्टों की कोई सीमा नहीं है। यदि काम ज्यादा होता है, तो ये हर रात को ९ या १२ बजे तक काम करती रहती है ।" ("Reports, &c., for 31st October, 1862" ["रिपोर्ट, इत्यादि , ३१ अक्तूबर १८६२'], पु. ५६।) एक डाक्टर ने कहा है : “ठण्डा होने के लिये कोई खास समय निश्चित नहीं है, लेकिन यदि तापमान बहुत बढ़ जाता है या मजदूरों के हाथ पसीने से खराब हो जाते हैं, तो उनको चन्द मिनट के लिये बाहर चले जाने की इजाजत दे दी जाती है भट्ठी पर काम करने वाली मजदूरिनों की बीमारियों के इलाज का मुझे बहुत काफ़ी अनुभव है, और यह अनुभव मुझे यह कहने पर मजबूर करता है कि सफ़ाई की दृष्टि से इन लोगों को जिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, वे उतनी अच्छी नहीं होतीं, जितनी अच्छी परिस्थितियों में कताई करने वाली मिलों की मजदूरिने काम करती हैं ( हालांकि पूंजी ने संसद के नाम अपने भावेदन-पत्रों में भट्ठी पर काम करने वाली मजदूरिनों की स्थिति का स्वेन्स की कलाकृति के समान बड़ा भड़कीला चित्र बींचा था)। इन मजदूरिनों में जो बीमारियां सबसे - 22-45