अतिरिक्त मूल्य की दर और अतिरिक्त मूल्य की राशि ३४७ . . , . . इसके विपरीत, यदि अतिरिक्त मूल्य की बर के कम हो जाने के साथ-साथ अस्थिर पूंजी की मात्रा, या काम करने वाले मजदूरों की संख्या, उसी अनुपात में बढ़ जाती है, तो अतिरिक्त मूल्य की राशि ज्यों की त्यों रहेगी। फिर भी, काम करने वाले मजदूरों की संख्या में कमी मा जाने पर, या लगायी हुई पस्थिर पूंजी की मात्रा घट जाने पर, उसकी क्षति को अतिरिक्त मूल्य की दर बढ़ाकर, या काम के दिन को लम्बा करके, केवल कुछ दुर्लज्य सीमानों के भीतर ही पूरा किया जा सकता है। श्रम-शक्ति का मूल्य कुछ भी हो, मजदूरों के जीवन-निर्वाह के लिये चाहे २ घन्टे का श्रम- काल मावश्यक हो और चाहे १० घण्टे का, एक मजदूर दिन प्रति दिन काम करके अधिक से अधिक जो मूल्य तैयार कर सकता है, वह उस मूल्य से हमेशा कम होता है, जिसमें २४ घण्टे का श्रम निहित होता है। यदि २४ घण्टे के मूर्त रूप प्राप्त श्रम की मुद्रागत अभिव्यंजना १२ शिलिंग हो, तो मजदूर दिन भर में चाहे जितना मूल्य पैदा करे, वह सवा १२ शिलिंग से कम ही होगा। हमने पहले यह माना था कि खुद श्रम-शक्ति का पुनरुत्पादन करने के लिये, या श्रम- शक्ति की खरीद में लगायी गयी पूंजी के मूल्य का स्थान भरने के लिये, रोखाना ६ घण्टे का काम प्रावश्यक होता है। इस मान्यता के अनुसार, १५०० शिलिंग की अस्थिर पूंजी, जो ५०० मजदूरों से काम लेती है, १२ घण्टे के काम के दिन और १०० प्रतिशत की अतिरिक्त मूल्य की दर के हिसाब से रोजाना १५०० शिलिंग-या काम के ६४५०० घण्टों के बराबर अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगी। ३०० शिलिंग की पूंजी, जो १०० मजदूरों से २०० प्रतिशत की अतिरिक्त मूल्य की वर पर-या १८ घण्टे के काम के दिन के अनुसार -काम लेती है, केवल ६०० शिलिंग -या काम के १२४१०० घण्टों के बराबर अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगी। और वह कुल जितना मूल्य पैदा करेगी, यानी लगायी गयी अस्थिर पूंजी तथा अतिरिक्त मूल्य का योग, दिन प्रति दिन काम करने के बाद भी कभी १२०० शिलिंग की रकम-या काम के २४४१०० घण्टों- -तक नहीं पहुंच सकता। काम के प्रोसत दिन की एक निरपेक्ष सीमा होती है, क्योंकि प्रकृति के नियमानुसार वह २४ घण्टे से हमेशा कम होता है। और उसकी इस निरपेक्ष सीमा से इस बात पर भी एक निरपेक्ष सीमा लग जाती है कि अस्थिर पूंजी की कमी से पैदा होने वाली गति को प्रतिरिक्त मूल्य की बर को बढ़ाकर कहां तक पूरा किया जा सकता है, या शोषित मजदूरों की संख्या घट जाने से होने वाली मति को श्रम-शक्ति के शोषण की मात्रा को बढ़ाकर कहां तक पूरा किया जा सकता है। यह स्वतःस्पष्ट नियम ऐसी बहुत सी घटनामों को समझने के लिये महत्व रखता है, जो पूंजी द्वारा अपने यहां काम करने वाले मजदूरों की संख्या को-या श्रम-शक्ति में रूपान्तरित कर दिये गये अपने अस्थिर अंश को-अधिक से अधिक कम कर देने की प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है। यह प्रवृत्ति (जिसपर हम भागे विस्तार से विचार करेंगे) पूंजी की इस दूसरी प्रवृत्ति से बराबर टकराती रहती है कि वह अधिक से अधिक प्रतिरिक्त मूल्य पैदा करने की कोशिश करती है। दूसरी मोर, यदि काम में लगायी गयी श्रम शक्ति की राशि बढ़ जाती है, या अस्थिर पूंजी की राशि बढ़ जाती है, पर अतिरिक्त मूल्य की दर में भायी हुई कमी के अनुपात में नहीं बढ़ती, तो अतिरिक्त मूल्य की राशि कम हो जाती है। कुल कितना अतिरिक्त मूल्य पैदा होगा, यह चूंकि दो बातों से निर्धारित होता है- अतिरिक्त मूल्य की बर से और पेशगी लगायी गयी अस्थिर पूंजी की राशि से, इसलिये इसके निष्कर्ष के रूप में हमें एक तोतरा नियम मिलता है। यदि अतिरिक्त मूल्य की पर, या श्रम- शक्ति के शोषण की मात्रा, और अम-पाक्ति का मूल्य, या मावश्यक प्रम-काल की मात्रा, पहले . , . .
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