पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३५१

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३४८ पूंजीवादी उत्पादन . . . से मालूम हों, तो यह बात स्पष्ट है कि अस्थिर पूंजी जितनी ज्यादा होगी, उतना ही अधिक मूल्य पैरा होगा और अतिरिक्त मूल्य की उतनी ही अधिक राशि होगी। परि काम के दिन की सीमा मालूम हो और साथ ही उसके प्रावश्यक भाग की सीमा भी मालूम हो, तो यह बात कि कोई बास पूंजीपति कुल कितना मूल्य तथा प्रतिरिक्त मूल्य पैदा करेगा, स्पष्टतया केवल इस बात पर निर्भर करेगी कि वह कुल कितने मम को गतिमान बना देता है। लेकिन यह बात ऊपर मानी हुई परिस्थितियों में भम-शक्ति की राशि पर, या पूंजीपति बिन मजदूरों का शोषण करता है, उनकी संख्या पर, निर्भर करती है, और खुद यह संस्था इस बात पर निर्भर करती है कि कुल कितनी अस्थिर पूंजी लगायी गयी है। इसलिये, यदि अतिरिक्त मूल्य की दर पहले से मालूम हो और मम-शक्ति का मूल्य मालूम हो, तो अतिरिक्त मूल्य की राशि कुल लगायी गयी अस्थिर पूंजी की मात्रा के सीधे अनुपात में घटेगी-बढ़ेगी। अब हमें यह मालूम है कि पूंजीपति अपनी पूंजी को दो भागों में बांट देता है। एक भाग वह उत्पादन के साधनों पर खर्च करता है। यह उसकी पूंजी का स्थिर भाग होता है। दूसरा भाग बह जीवित मन-पाक्ति पर खर्च करता है। यह भाग उसकी अस्थिर पूंजी बन जाता है। सामाजिक उत्पादन की एक सी पति के प्राधार पर उत्पादन की अलग-अलग शालानों में पूंजी का स्थिर तथा अस्थिर पूंजी में बंटवारा अलग- अलग ढंग से होता है, और उत्पादन की एक ही शाखा में भी प्राविधिक परिस्थितियों में तथा उत्पादन की प्रक्रियाओं के सामाजिक योगों में परिवर्तन होने पर स्थिर और मस्थिर पूंजी का अनुपात बदल जाता है। परन्तु कोई पूंजी चाहे जिस अनुपात में स्थिर और पस्थिर भागों में बंट जाये, चाहे उनका अनुपात १:२, या १:१०, या १:"स" हो, ऊपर बताये गये नियम पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कारण कि ऊपर हम वो विश्लेषण कर पाये हैं, उसके अनुसार स्विर पूंजी का मूल्य पैदावार के मूल्य में तो पुनः प्रकट होता है, परन्तु वह नये पैदा होने वाले मूल्य में प्रवेश नहीं करता, वह नव-उत्पादित मूल्य पैदावार का भाग नहीं होता। कताई करने पाले १०० मजदूरों से काम लेने के लिये जितने कच्चे माल, जितने तकुओं प्रादि की बरत होती है, १००० मजदूरों से काम लेने के लिये, जाहिर है, उससे ज्यादा की जरूरत होगी। किन्तु उत्पादन के इन अतिरिक्त साधनों का मूल्य घट-बढ़ सकता है या ज्यों का त्यों रह सकता है पोर कम या ज्यादा हो सकता है, पर उत्पादन के इन साधनों में गति पैदा करने वाली श्रम- शक्ति के द्वारा अतिरिक्त मूल्य के सृजन की प्रक्रिया पर इन साधनों के मूल्य का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिये, ऊपर हमने जिस नियम पर विचार किया है, वह अब यह रूप धारण कर लेता है कि यदि प्रम-शक्ति का मूल्य मालूम हो और उसके शोषण की मात्रा एक सी रहे, तो अलग-अलग पूंजियों से वो मूल्य तथा प्रतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, उनकी राशियां सीधे इस अनुपात में घटती-बढ़ती है कि इन पूंजियों के अस्थिर अंशों की राशियां, पर्वात् उन अंशों की राशियां, बो कि जीवित मन-शक्ति में पान्तरित कर दिये गये हैं, कितनी छोटी या बड़ी हैं। तयों के सतही निरीक्षण से हमें बो अनुभव प्राप्त होता है, यह नियम उस सब के खिलाफ जाता है। हर पावनी जानता है कि कपास की कताई करने वाला यह कारखानेवार, बो अपनी लगायी हुई पूरी पूंजी के प्रतिशत भाग के हिसाब से बहुत प्रषिक स्थिर पूंजी और बहुत बोटी पस्थिर पूंजी का प्रयोग करता है, वह इस कारण उस नानबाई से कम मुनाफा-या अतिरिक्त मूल्य-नहीं कमाता, बो कि उसकी तुलना में बहुत अधिक पस्थिर पूंजी और बहुत कम स्विर पूंजी का उपयोग करता है। ऊपर से ये परस्पर विरोधी बातें मालूम होती है। इस पहेली को हल कर सकने के लिये पनी बात से बीच के नतों को जानने की पावश्यकता है, जैसे 1 . .