३५२ पूंजीवादी उत्पादन से बर्मन राज्यों में पान, हमारे काल में भी देखा जा सकता है, और कुछ हद तक उससे कुछ ऐसी कम्पनियां बन जाती है, जिनको उद्योग एवं व्यापार की कुछ बात शाखामों का शोषण करने का कानूनी एकाधिकार प्राप्त होता है। ये कम्पनियां हमारी माधुनिक सम्मिलित पूंची वाली (न्वाइंट स्टाक) कम्पनियों की पूर्वग बीं। जैसा कि हम देख पुके है, उत्पादन की प्रक्रिया के भीतर पूंजी ने मम के कपर, प्रति कार्यरत भम-शक्ति पर, या पुर मजदूर पर, अपना अधिकार जमा लिया था। मूर्तिमान पूंजी अपवा पूंजीपति इस बात का खयाल रखता है कि मजदूर अपना काम नियमित ढंग से तवा समुचित तेजी से करता है या नहीं। इतना ही नहीं, पूंजी श्रम के साथ बोरवस्ती का एक सम्बंध बन जाती है, जिसके बारा मजदूरवर्ग को उसके अपने जीवन की पावश्यकतामों के लिये वो बोड़ा सा काम करना बकरी होता है, उससे ज्यादा काम करने के लिये मजबूर किया जाता है। दूसरों की क्रियाशीलता के पैदा करने वाले के रूप में, अतिरिक्त मम चूसने वाले और मम शक्ति के शोषक के रूप में पूंजी बिस मुस्तैदी, निर्ममता, सभी तरह की हवों को तोड़ देने की भावना और कार्य-कुशलता का परिचय देती है, उसके सामने प्रत्यक्ष रूप से बर्दस्ती कराये गये मन पर माधारित इसके पहले की तमाम उत्पादन-व्यवस्थाएं फीकी पड़ जाती हैं। शुरू में पूंजी उन प्राविधिक परिस्थितियों के पापार पर भम को अपने पापीन बनाती है, जो इतिहास के उस काल में पायी जाती है। इसलिये, वह उत्पादन की प्रणाली में तुरन्त कोई परिवर्तन नहीं करती। प्रतः अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के जिस प पर अभी तक हमने विचार किया है, यानी केवल काम के दिन का विस्तार करके अतिरिक्त मूस्य का उत्पादन करना, वह स्वयं उत्पादन की प्रणाली में होने वाले परिवर्तनों से स्वतंत्र सिडामा पा। पुराने ढंग की रोटियों की दुकानों में वह माधुनिक सूती मिलों से कम क्रियाशील नहीं था। यदि हम साधारण भन-प्रपिया की दृष्टि से उत्सावन की क्रिया पर विचार करें, तो उत्पादन के साधनों के साथ मखदूर का सम्बंध उनके इस गुण के कारण नहीं होता कि साधन पूंजी हैं, बल्कि वह इस कारण होता है कि उत्पादन के साधन मजदूर की खुद अपनी विवेकपूर्ण उत्पादक कार्रवाई के साधन एवं सामग्री मात्र है। मिसाल के लिये, चमड़ा कमाने में मजदूर सालों के साथ केवल अपने मन की सामग्री के रूप में बर्ताव करता है। प्राबिर बह पूंजीपति की लाल को नहीं कमाता। लेकिन जैसे ही हम उत्पादन की प्रक्रिया पर अतिरिक्त मूल्य के सृजन की क्रिया की दृष्टि से विचार करना प्रारम्भ करते हैं, वैसे ही परिस्थिति एकदम बदल जाती है। तब उत्पादन के साधन क्रोरन दूसरों के श्रम का अवशोषण करने के साधनों में बदल जाते हैं । अब मजदूर उत्पादन के साधनों से काम नहीं लेता, बल्कि उत्पादन के साधन मखदूर से काम लेते हैं। अब अपनी उत्पादक कार्रवाई के भौतिक तत्वों के रूप में मजदूर उत्पादन के साधनों का नहीं उपयोग बल्कि उत्पादन के साधन खुब मजदूर का अपनी जीवन-पिया के लिये प्रावश्यक समीर के रूप में उपयोग करते हैं। और पूंजी की जीवन-अभिया निरन्तर स्वतःविस्तार करते जाने बाले, अपने पाप बढ़ते जाने वाले मूल्य के प में मात्र उसकी गति के सिवा और कुछ नहीं होती। जो भट्ठियां और वर्कशाप रात को बेकार पड़ी रहती है और पीवित मन का अवशोषण - करता, . 1 मार्टिन लूथर ने इस प्रकार की कम्पनियों को "die Gesellschaft-Monopoliar ("इजारेदार कम्पनी") का नाम दिया है।
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