सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की धारणा . उत्पादकता में होनेवाली वृद्धि उत्पादन की उन शालाओं में भी दिखाई देने लगती है, जिनका उन मालों से सम्बंध है, जोगीवन-निर्वाह के पावश्यक साधनों का भाग है और इसलिये जो श्रम- शक्ति के मूल्य के तत्व होते हैं, और जब यह वृद्धि इन मालों को सस्ता कर देती है। मालों का मूल्य श्रम की उत्पादकता के प्रतिलोम अनुपात में घटता-बढ़ता है। और श्रम- शक्ति के मूल्य के लिये भी यह बात सच है, क्योंकि वह मालों के मूल्यों पर निर्भर करता है। इसके विपरीत, सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य इस उत्पादकता के अनुलोम अनुपात में घटता-बढ़ता है। वह बढ़ती हुई उत्पादकता के साथ बढ़ता और गिरती हुई उत्पादकता के साथ घटता है। यदि मुद्रा का मूल्य स्थिर मान लिया जाये, तो १२ घण्टे के प्रोसत ढंग के सामाजिक काम के दिन में सदा उतना ही नया मूल्य-यानी यहां पर छ: शिलिंग ही-पैदा होगा, चाहे यह रकम अतिरिक्त मूल्य तथा मजदूरी के बीच किसी भी तरह बंट जाये। परन्तु यदि उत्पादकता बढ़ जाने के फलस्वरूप जीवन के लिये प्रावश्यक वस्तुओं का मूल्य गिर जाये और इसलिये एक दिन की श्रम- शक्ति का मूल्य पांच शिलिंग से घटकर तीन शिलिंग रह जाये, तो अतिरिक्त मूल्य एक शिलिंग से बढ़कर तीन शिलिंग हो जाता है। पहले श्रम-शक्ति के मूल्य का पुनरुत्पादन करने के लिये बस घण्टे बकरी थे, अब केवल छः घन्टे जरूरी है। चार घण्टे मुक्त हो जाते हैं, और उनको अतिरिक्त श्रम के क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है। अतएव पूंजी में सदा इसकी चाह मौर उसमें सदा यह प्रवृति निहित रहती है कि मालों को सस्ता करने तथा उनको सस्ता करके खुब मजदूर को सस्ता करने के उद्देश्य से श्रम की उत्पादकता को अधिक से अधिक बढ़ाती जाये। किसी माल का मूल्य खुद अपने में पूंजीपति के लिये कोई दिलचस्पी नहीं रखता। उसको दिलचस्पी तो महज इस माल में निहित प्रतिरिक्त मूल्य में होती है, जिसे इस माल को बेचकर पाया जा सकता है। अतिरिक्त मूल्य पाने के साथ-साथ लाजिमी तौर पर पेशगी लगाया गया मूल्य वापिस पा जाता है। अब चूंकि सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य श्रम की उत्पादकता के विकास के अनुलोम अनुपात में बढ़ता है, जब कि, दूसरी मोर, मालों का मूल्य उसी अनुपात में - 1 ! (1 "मजदूर का खर्चा जिस अनुपात में भी कम हो जायेगा, उसकी मजदूरी उसी अनुपात में घट जायेगी, बशर्ते कि उसके साथ-साथ उद्योग पर लगे हुए प्रतिबंध हटा लिये Teht " ("Considerations concerning Taking off the Bounty on Corn Exported, &c." ['अनाज का निर्यात करने वाले व्यापारियों को दी जाने वाली प्रार्थिक सहायता को बन्द करने के विषय में कुछ विचार, इत्यादि'), London, 1753, पृ० ७।) 'व्यापार के हित में यह प्रावश्यक है कि अनाज और सभी खाद्य-वस्तुएं यथासंभव सस्ती हों, क्योंकि यदि कोई कारण इन चीजों को महंगा बना देता है, तो वह श्रम को भी महंगा कर देता है। जिन देशों में उद्योगों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा है, उन सभी देशों में खाद्य- वस्तुओं के दाम का श्रम के दाम पर प्रभाव पड़ना लाजिमी है। जीवन के लिये आवश्यक वस्तुमों के सस्ता हो जाने पर श्रम हमेशा सस्ता हो जायेगा।" (उप० पु०, पृ० ३।) 'उत्पादन की शक्तियां जितनी बढ़ जाती हैं, मजदूरी उसी अनुपात में कम हो जाती है। यह सच है कि मशीनें जीवन के लिये प्रावश्यक वस्तुओं को सस्ता कर देती हैं, पर साथ ही वे मजदूर को भी सस्ता कर देती हैं ।" ("A Prize Essay on the Comparative Merits of Competition and Co-operation" ['प्रतियोगिता और सहकारिता के तुलनात्मक लाभों पर एक पुरस्कृत निबंध'], London, 1834, पृ. २७।) ef
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