पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३७६ पूंजीवादी उत्पादन . में अतिरिक्त मूल्य निचोड़ना' और इसलिये मम-शक्ति का अधिकतम शोषण करना होता है। जैसे-जैसे सहकार करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे पूंची के प्रभुत्व के विक्ट उनका प्रतिरोष और उसके साथ-साथ पूंजी के लिये इस प्रतिरोध पर बलपूर्वक काबू पाने की मावश्यकता भी बढ़ती जाती है। मन पर पूंजीपति का नियंत्रण न केवल सामाजिक मम-प्रक्रिया से उत्पन्न एक विशिष्ट कार्य है, वो इस प्रक्रिया की एक जास विशेषता है, बल्कि इसके साथ ही वह सामाजिक मम-प्रशिया के शोषण से जुड़ा हमा एक खास कार्य है, और इसलिये उसकी जड़े शोषक तवा उस जीवन्त एवं सम-रत कच्चे माल के अनिवार्य विरोध में पायी जाती है, जिसका वह शोषण करता है। फिर, जिस अनुपात में उत्पादन के उन साधनों की राशि बढ़ती जाती है, जो अब मजदूर की सम्पत्ति नहीं है, बल्कि पूंजीपति की सम्पत्ति बन गये हैं, उसी अनुपात में इन साधनों के समुचित प्रयोग पर किसी तरह का सफल नियंत्रण रखने की प्रावश्यकता बढ़ती जाती है।' इसके अलावा, मजबूरी पर काम करने वाले मजदूरों की सहकारिता को समूचे तौर पर वह पूंजी जन्म देती है, जो उनको नौकर रखती है। उनका एक संयुक्त उत्पादक संस्था में मिल जाना और उनके व्यक्तिगत कामों के बीच सम्बंध का स्थापित हो जाना -ये मजदूरों के लिये बाहरी और परापी बातें हैं, ये बातें पुर मजदूरों के कामों का नतीजा नहीं है, बल्कि उस पूंजीपति के काम का नतीजा है, जिसने उनको एक जगह लाकर इकट्ठा किया है और जो उनको एक जगह इकट्ठा रखता है। इसलिये, मजदूरों के विविध प्रकार के भम के बीच जो सम्बंध होता है, वह उनके सामने भावगत रूप से पूंजीपति की एक पहले से सोची हुई योजना के रूप में प्रकट होता है, और व्यवहार में वह सब पर एक ही पूंजीपति के प्राधिकार के रूप में, एक अन्य व्यक्ति की शक्तिशाली इच्छा के रूप में उनके सामने पाता है, जो उनकी क्रियाशीलता को अपने उद्देश्य के प्राचीन बना लेता है। इसलिये, स्वयं उत्पादन की प्रक्रिया के दोहरे स्वरूप के कारण, जो कि एक पोर तो -मूल्यों को पैदा करने की सामाजिक प्रक्रिया होती है और, दूसरी पोर, अतिरिक्त मूल्य का सृजन करने की प्रक्रिया होती है, पूंजीपति का नियंत्रण भी अपने सारस्तत्व में दोहरे प्रकार का होता है। इस नियंत्रण का रूप . . . 1 " 'मुनाफ़ा... व्यापार का एकमात्र लक्ष्य होता है।" (J. Vanderlint, "Money answers all Things" [जे. वैण्डरलिष्ट, 'मुद्रा सब चीजों का जवाब है'], London, 1734, पृ० १११) 'सिद्धान्तविहीन कूपमण्डूक पन “Spectator" ने लिखा है कि 'मानचेस्टर की वायरवर्क कम्पनी' में पूंजीपति और मजदूरों के बीच किसी तरह की साझेदारी कायम हो जाने के बाद "पहला नतीजा यह हुमा कि सामान का जाया किया जाना यकायक कम हो गया, क्योंकि किसी भी अन्य मालिक की तरह मजदूर यह सोचने लगे कि अपनी सम्पत्ति को खुद क्यों जाया करें। और दूब जाने वाले ऋण के बाद शायद सामान के पाया होने से ही कारखानेदारों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है।" ("Spectator", २६ मई १८६६ । ) इसी अखबार की राय में रोचडेल में होने वाले सहकारी प्रयोगों का मुख्य दोष यह है कि "उनसे यह प्रमाणित हमा है कि मजदूरों की संस्थाएं कारखानों, मिलों और उद्योग के लगभग सभी रूपों का सफलता के साथ प्रबंध कर सकती है, और साथ ही उनसे मजदूरों की दशा में तुरन्त सुधार लेकिन उन्होंने मालिकों के लिये कोई साफ़ स्थान नहीं छोड़ा।" Quelle horreur! (कितनी भयानक बात है!) हो गया,