सहकारिता ३७७ निरंकुश होता है। जैसे-जैसे सहकारिता का पैमाना बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे यह निरंकुशता अपने विशिष्ट प्रनोले प धारण करती जाती है। जिस प्रकार शुरू में ,जैसे ही पूंजीपति की पूंजी उस पल्पतम मात्रा के स्तर पर पहुंच जाती है, जिसपर पूंजीवादी उत्पावन बाकायदा प्रारम्भ हो जाता है, वैसे ही जुन पूंजीपति सचमुच श्रम करने की पावश्यकता से मुक्त हो जाता है और उसी प्रकार अब वह अलग-अलग मजदूरों तथा मजदूरों के बलों पर सीचे और लगातार निगाह रखने का काम एक खास तरह के बेतन-भोगी कर्मचारियों को सौंप देता है। पूंजीपति की कमान में चलने वाली मजदूरों की प्रौद्योगिक सेना को भी वास्तविक सेना की भांति अफसरों (मैनेजरों)! और जमादारों (फ्रारमनों, निरीक्षकों प्रावि) की पावश्यकता पड़ती है, जो काम के दौरान में पूंजीपति की तरफ से इस सेना को प्रावेश दिया करते हैं। मजदूरों पर निगरानी रखना इन लोगों का जाना-माना और एकमात्र काम बन जाता है। जब कोई पर्य- शास्त्री अलग-अलग काम करने वाले किसानों और बस्तकारों की उत्पादन-प्रणाली का वासों के श्रम से चलने वाले उत्पादन से मुकाबला करता है, तो निगरानी रखने के इस श्रम की गिनती यह उत्पादन के faux irals (अनुत्पादक खर्च) में करता है। लेकिन जब वही अर्थशास्त्री उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली पर विचार करने बैठता है, तब वह, इसके विपरीत, भम-प्रक्रिया के सहकारी स्वरूप के कारण को नियंत्रण रखने का कार्य प्रावश्यक हो गया है, उसे नियंत्रण रखने के उस बिल्कुल भिन्न कार्य के साथ मिला देता है, जो श्रम-प्रक्रिया के पूंजीवादी स्वरूप तथा पूंजीपति और मजदूर के बीच पाये जाने वाले विरोध के कारण बकरी हो जाता है। कोई पादमी इसलिये पूंजीपति नहीं होता कि वह उद्योग का नेता है, इसके विपरीत, वह उद्योग का नेता इसलिये होता है कि वह पूंजीपति है। उद्योग का नेतृत्व करना पूंजी का गुण है, जिस प्रकार सामन्ती काल में सेनापति और न्यायाधीश का काम करना भू- सम्पत्ति के गुण थे। मजदूर उस वक्त तक अपनी श्रम-शक्ति का स्वामी रहता है, जब तक कि वह पूंजीपति - 1 प्रोफेसर केर्न्स ने यह कहने के बाद कि उत्तरी अमरीका के दक्षिणी राज्यों में दासों के जरिये होने वाले उत्पादन की यह एक खास विशेषता है कि "superintendence of labour" ("मजदूरों पर निगरानी") रखनी पड़ती है, मागे यह कहा है कि “ (उत्तर का) भूस्वामी किसान क्योंकि अपनी मेहनत की पूरी पैदावार का खुद मालिक होता है, इसलिये उसे परिश्रम करने के लिये किसी और प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। यहां निगरानी रखने की कतई जरूरत नहीं होती।" (Cairnes, उप. पु., पृ ४८, ४६ ।) 'सर जेम्स स्टीवर्ट एक ऐसे लेखक है, जिनमें उत्पादन की विभिन्न प्रणालियों के बीच पाये जाने वाले विशिष्ट सामाजिक भेदों को पहचानने की विलक्षण क्षमता है। उन्होंने लिखा है : “कारखानों के क्षेत्र में बड़े पैमाने के व्यवसाय निजी उद्योग को जो चौपट कर देते हैं, उसका इसके सिवा और क्या कारण है कि वे गुलामी की सरलता के अधिक नजदीक पहुंच जाते है ?" ("Principles of Political Economy" ['अर्थशास्त्र के सिद्धान्त'], London, 1767, बण्ड १, पृ. १६७, १६८।) 'इसलिये भागस्त कांत और उनके मत के लोगों ने जिस तरह यह प्रमाणित कर दिया है कि पूंजी के स्वामियों की संसार को सदा मावश्यकता बनी रहेगी, उसी प्रकार के यह भी प्रमाणित कर सकते थे कि सामन्ती प्रभुषों का होना एक शाश्वत पावश्यकता है।
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