श्रम का विभाजन पौर हस्तनिर्माण ३६६ है। यह तक कहा जा सकता है कि समाज के पूरे प्रार्षिक इतिहास का सारांश इस विरोष की प्रगति में निहित है। लेकिन फिलहाल हम इस विषय की पर्चा न करके मागे बढ़ते हैं। जिस तर हस्तनिर्माण में सम-विभाजन के अस्तित्व में पाने के लिए यह भौतिक शर्त पावश्यक होती है कि एक बास संस्था में मजदूरों से एक साथ काम लिया जाये, उसी तरह समाज में मन-विभाजन के अस्तित्व में पाने के लिए यह पावश्यक है कि उसकी जन-संस्था काफी बड़ी और काक्री घनी हो। कारण कि यहां पर पाबादी की संख्या और घनत्व वही काम करते हैं, जो वर्कशाप में मजदूरों का एक खास संस्था में इकट्ठा होना। फिर भी यह. घनत्व न्यूनाधिक सापेक्ष ही होता है। यदि अपेक्षाकृत हल्की पाबादी वाले किसी देश में संचार के साधन खूब विकसित हैं और किसी दूसरे देश में अपेक्षाकृत अधिक मावाबी के होते हुए भी यदि संचार के साधन कम विकसित है, तो पहले प्रकार देश अधिक घनी पाबादी समझी जायेगी, और इस पर्व में, मिसाल के लिए अमरीकी संघ के उत्तरी राज्यों की पावावी हिन्दुस्तान की पाबारी से अधिक धनी है।' चूंकि उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली के अस्तित्व में पाने के पहले यह पावश्यक है कि मालों का उत्पादन और परिचलन जारी हो गया हो, इसलिए हस्तनिर्माण में श्रम-विभाजन होने के पहले यह जरूरी है कि समाज में साधारण रूप से भम-विभाजन पहले ही विकास के एक बास स्तर पर पहुंच पुका हो। उसको उल्टी बात को यदि लिया जाये, तो हस्तनिर्माण में पाये जाने वाले श्रम-विभाजन की समाज में पाये जाने वाले बम-विभाजन पर प्रतिक्रिया होती है। उसके फलस्वरूप वह विकास करता है और उसका गुणन होता है। साथ ही, श्रम के पोखारों के मेवकरण के साथ-साथ इन पौधारों को तैयार करने वाले उद्योगों का भेवकरण भी सर जेम्स स्टीवर्ट ही ऐसे पर्यशास्त्री हैं, जिन्होंने इस विषय का सबसे अच्छा विवेचन किया है। उनकी पुस्तक का, जो "Wealth of Nations' ('राष्ट्रों का धन') के दस वर्ष पहले प्रकाशित हुई थी, आज भी लोगों को कितना कम ज्ञान है, यह इस बात से प्रकट हो जाता है कि माल्थूस के प्रशंसकों को यह भी मालूम नहीं कि जन-संख्या के बारे में माल्यूस की पुस्तक में , उसके विशुद्ध पालंकारिक भाग को छोड़कर, स्टीवर्ट की रचना के उद्धरणों तथा उससे कुछ कम मात्रा में वैलेस तथा टाउनसेण्ड की रचनाओं के उबरणों के सिवा और कुछ नहीं है। "जन-संख्या के घनत्व की एक ऐसी बास माना सामाजिक पादान-प्रदान के लिए तथा साथ ही शक्तियों के उस योग के लिए भी उपयुक्त होती है, जिसके द्वारा श्रम की उपज बढ़ा दी जाती है।" (James Mill, उप० पु०, पृ० ५०।) "जैसे-जैसे मजदूरों की संख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे समाज की उत्पादक शक्ति भी इस वृद्धि के मित्र अनुपात में बढ़ती जाती है; क्योंकि वह श्रम-विभाजन के प्रभाव से गुणित हो जाती है।" (Th. Hodgskin, उप० पु०, पृ० १२५ - १२६ ।) १८६१ के बाद कपास की मांग बहुत बढ़ जाने के फलस्वरूप हिन्दुस्तान के कुछ धनी मावादी वाले इलाकों में चावल की खेती को कम करके कपास की पैदावार बढ़ायी गयी। उसका नतीजा यह हमा कि विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय ढंग के अकाल पड़ने लगे, क्योंकि संचार के साधनों के दोषपूर्ण होने के कारण एक इलाके में चावल की कमी होने पर दूसरे इलाके से चावल मंगाना सम्भव नहीं हुमा।
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