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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/४४०

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मशीनें और माधुनिक उद्योग ४३७ . अनुभाग २- मशीनों द्वारा पैदावार में स्थानांतरित कर दिया गया मूल्य हम यह देख चुके हैं कि सहकारिता तवा मम-विभाजन से जो उत्पादक शक्तियां उत्पन्न होती है, उनमें पूंजी का एक पैसा भी खर्च नहीं होता। ये तो सामाजिक श्रम की स्वाभाविक शक्तियां होती है। इसी प्रकार, जब भाप, पानी मावि भौतिक शक्तियों का उत्पादक किसानों में उपयोग होता है, तब उनपर कुछ खर्च नहीं होता। लेकिन जिस तरह पादमी को सांस लेने के लिये फेफड़ों की बरत होती है, उसी तरह उसे भौतिक शक्तियों का उत्पादक ढंग से उपयोग करने के लिये प्रादमी के हाथ की बनी किसी बीच की जरूरत होती है। पानी की शक्ति का उपयोग करने के लिये पन-चक्की की और भाप की प्रत्यास्मता से लाभ उठाने के लिये भाप के इंजन की पावश्यकता होती है। जब एक बार किसी विधुत-धारा के क्षेत्र में पुम्बक की सुई के विचलन का नियम या जिस लोहे के चारों ओर कोई विद्युत-धारा बह रही हो, उसके चुम्बक बन जाने का नियम मालूम हो जाता है, तब फिर उसके बाद इन नियमों पर एक पाई भी खर्च नहीं होती। लेकिन तार-प्रणाली प्रावि में इन नियमों का उपयोग करने के लिये एक बहुत कीमती और विस्तृत उपकरण की प्रावश्यकता होती है। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, प्रोबार को मशीन नष्ट नहीं कर देती। मानव-शरीर के एक छोटे से, वामनाकार प्रसार के बजाय वह फैलकर और बढ़कर पावनी के बनाये हुए एक यंत्र का मौजार बन जाता है। अब पूंची मजदूर से काम लेती है, तो उसे हाप के प्राचार से नहीं, बल्कि एक ऐसी मशीन से काम करना पड़ता है, जो खुद उस पौधार को चलाती है। इसलिये, यद्यपि यह बात पहली ही दृष्टि में स्पष्ट हो जाती है कि प्राधुनिक उद्योग विराट भौतिक शक्तियों और प्राकृतिक विज्ञान दोनों का उत्पादन की क्रिया में समावेश करके श्रम की उत्पादकता में प्रसाधारण वृद्धि कर देता है, तथापि यह बात इतनी स्पष्ट कदापि नहीं होती बढ़ी हुई उत्पादक शक्ति पहले से अधिक श्रम खर्च करके नहीं खरीदी जाती। स्थिर पूंजी के दूसरे हरेक संघटक की भांति मशीनें भी कोई नया मूल्य नहीं पैदा करतीं, बल्कि वे जिस पैदावार को तैयार करने में मदद देती है, उसको खुब अपना मूल्य समर्पित कर देती हैं। जिस हब तक मशीन का मूल्य होता है और उसके परिणामस्वरूप जिस हद तक वह अपना मूल्य पैदावार को दे देती है, उस हब तक वह उस पैदावार के मूल्य का एक तत्व बन जाती है। पैदावार पहले से सस्ती होने के बजाय मशीन के मूल्य के अनुपात में पहले से महंगी हो जाती है। और माण यह बात दिन के प्रकाश के समान स्पष्ट है कि प्राधुनिक उद्योग के ये विशिष्ट पाम तौर पर विज्ञान पर पूंजीपति का एक पैसा खर्च नहीं होता। मगर इस बात से पूंजीपति के विज्ञान से लाभ उठाने में कोई रुकावट नहीं पड़ती। जिस प्रकार पूंजी दूसरों के श्रम पर अधिकार कर लेती है, उसी प्रकार वह दूसरों के विज्ञान पर भी कब्जा कर लेती है। लेकिन विज्ञान पर अथवा भौतिक धन पर पूंजीवादी हस्तगतकरण और व्यक्तिगत हस्त- गतकरण दो बिल्कुल अलग-अलग चीजें होती हैं। खुद डा. उरे ने इस बात पर खेद प्रकट किया है कि मशीनों का उपयोग करने वाले उनके प्रिय कारखानेदारों में यांत्रिक विज्ञान का तनिक सा भी ज्ञान नहीं पाया जाता, और इंगलैण्ड के रासायनिक कारखानों के मालिकों में रसायन-विज्ञान का कैसा पाश्चर्यजनक प्रज्ञान पाया जाता है, इसके बारे में लीबिग एक पूरी कया सुना सकते है। यह पहले से .