पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/४५०

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मशीनें और प्राधुनिक उद्योग श्रम-शक्ति का मूल्य केवल इसी बात से निर्धारित नहीं होता था कि अकेले वयस्क मवार को जीवित रखने के लिए कितना भम-काल पावश्यक है, बल्कि इस बात से भी कि मजदूर के परिवार को जीवित रखने के लिए कितना भम-काल मावश्यक है। मशीनें उसके परिवार के प्रत्येक सदस्य को श्रम की मण्डी में लाकर पटक देती है और इस तरह मजदूर की श्रमशक्ति के मूल्य को उसके पूरे परिवार पर फैला देती है । इस प्रकार, मशीनें उसकी मन-शक्ति के मूल्य को कम कर देती हैं। यह मुमकिन है कि पहले परिवार के मुखिया की मन-शक्ति को खरीदने में जितना खर्चा होता था, अब चार सदस्यों के पूरे परिवार की मम-पाक्ति को खरीदने में उससे कुछ प्रषिक बर्चा हो, लेकिन उसके एवज में एक दिन के मन की जगह पर चार दिन का मन मिल जाता है, और चार दिन का अतिरिक्त श्रम एक दिन के अतिरिक्त बम से जितना अधिक होता है, उसी अनुपात में इन चार दिनों के श्रम का बाम गिर जाता है। परिवार को जीवित रहने के लिए अब चार व्यक्तियों को न केवल श्रम, बल्कि पूंजीपति के लिए अतिरिक्त श्रम भी करना पड़ता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि मशीनें उस मानव-सामग्री में, जो पूंजी की शोषक शक्ति का प्रधान लक्ष्य होती है, वृद्धि करने के साथ साथ शोषण की मात्रा में भी वृद्धि कर देती हैं। - करने के उद्देश्य से किस प्रकार उसपर भी अधिकार कर लिया था। सीने-पिरोने के स्कूलों में मजदूरों की बेटियों को सिलाई सिखाने के लिए भी इस संकट का उपयोग किया गया। जो. सारी दुनिया के लिए कातती हैं, उनको सिलाई सीखने का मौका तब मिला, जब अमरीका में एक क्रान्ति हो गयी और सारा संसार मार्थिक संकट में फंस गया! 1"पुरुषों की जगह पर स्त्रियों की भर्ती और सबसे अधिक वयस्क मजदूरों की जगह पर बच्चों की भर्ती के फलस्वरूप मजदूरों की संख्या में भारी वृद्धि हो गयी है। परिपक्व आयु १८ शिलिंग से लेकर ४५ शिलिंग तक की साप्ताहिक मजदूरी पाने वाले पुरुष का स्थान तेरह- तेरह वर्ष की तीन लड़कियां ले लेती हैं, जिनको ६ शिलिंग से लेकर ८ शिलिंग तक प्रति सप्ताह mt noget gant gent I"( Th. de Quincey, "The Logic of Political Economy" [टोमस. दे क्विंसी, 'अर्थशास्त्र का तर्क', London, 1844, पृ० १४७ से सम्बन्धित नोट।) चूंकि कुछ पारिवारिक काम, जैसे बच्चों की देखभाल करना और उनको दूध पिलाना, पूरी तरह बन्द नहीं किये जा सकते, इसलिए पूंजी जिन माताओं को छीन लेती है, उनको इन जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई और तरकीब. निकालनी पड़ती है। सीने-पिरोने और मरम्मत करने के घरेलू काम के स्थान पर अब बनी-बनायी तैयार चीजें खरीदनी पड़ती हैं। इसलिए, घर में खर्च होने वाले श्रम में कमी पाने के साथ-साथ मुद्रा के खर्च में वृद्धि हो जाती है। परिवार के भरण-पोषण का खर्च बढ़ जाता है, और वह मामदनी में जो थोड़ी बढ़ती हुई है, उसका सफाया कर देता है। इसके अलावा, जीवन-निर्वाह के साधनों को तैयार करने तथा खर्च करने में विवेक और मितव्ययिता से काम लेना असम्भव हो जाता है। इन तथ्यों पर सरकारी भर्षशास्त्र ने तो पर्दा डाल रखा है, परन्तु "Reports of Inspectors of Factories" ('फैक्टरियों के इंस्पेक्टरों की रिपोर्टो') में, "Children's Employment Commission" 'बाल-सेवायोजन पायोग') की रिपोटों में और खास तौर पर "Reports on Public Health" ('सार्वजनिक स्वास्थ्य की रिपोर्टो') में इनसे सम्बंध रखने वाली बहुत सी सामग्री मिल जाती है। -