पूंजीवादी उत्पादन . . व्यवस्था के ये वकील पूर्ति और मांग के अपने नपे-तुले नियम के द्वारा यह प्रमाणित कर देते है कि मशीन उत्पादन के न केवल उस क्षेत्र में मजदूरों को बेरोजगार बना देती है, जिसमें वे पर इस्तेमाल की जाती है, बल्कि ये उन क्षेत्रों के मजदूरों की भी रोजी छीन लेती है, जिनमें के इस्तेमाल नहीं की जा रही है। प्रशास्त्रियों के प्राशावाद ने जिन वास्तविक तन्यों को इस हास्यास्पद रूप में पेश किया है, वे इस प्रकार है: मशीनें जिन मजदूरों को वर्कशाप से निकालकर बाहर कर देती हैं, श्रम की मण्डी में मारे-मारे फिरते हैं और यहाँ उन बेकार मजदूरों की संख्या को बढ़ाते हैं, जिनसे पूंजीपति अब चाहें काम ले सकते हैं। इस पुस्तक के भाग ७ में पाठक देखेंगे कि मशीनों का यह प्रभाव, जिसे अर्थशास्त्री मखदूर-वर्ग की पति-पूर्ति के रूप में पेश करते हैं, वास्तव में, इसके विपरीत, मजदूरों के लिये एक प्रत्यन्त भयानक विपत्ति होता है। फिलहाल में केवल इतना ही कहूंगा कि इसमें शक नहीं कि जिन मजदूरों को उद्योग की किसी एक शाखा से जवाब मिल जाता है, वे किसी और शाखा में नौकरी की तलाश कर सकते हैं। पर यदि उनको नौकरी मिल जाती है और यदि इस प्रकार वे जीवन-निर्वाह के साधनों के साथ पुनः प्रपना सम्बंध स्थापित करने में सफल हो जाते हैं, तो यह केवल किसी नयी एवं अतिरिक्त पूंजी, बो विनियोजन के लिये उत्सुक है, की मध्यस्थता से ही सम्भव होता है। जिस पूंजी ने उनको पहले नौकरी दे रही थी और जो बाव को मशीनों में बदल गयी थी, उसकी मध्यस्थता से यह कदापि सम्भव नहीं होता। और यदि उनको नौकरी मिल जाती है, तब भी, बरा सोचिये कि उनका भविष्य कितना अंधकारमय रहता है। इन प्रभागों को तो श्रम-विभाजन ने लुंज बना रखा है, इसलिये अपने पुराने पंधे के बाहर उनकी बहुत कम कीमत रह जाती है, और घटिया किस्म के चंब उद्योगों को छोड़कर, जिनमें बहुत कम मजदूरी पाने वाले मजदूरों की सबा बरत से ज्यादा रात रहती है, उनको और किसी उद्योग में जगह नहीं मिलती। इसके अलावा, उद्योग की प्रत्येक शाला हर वर्ष मजदूरों की एक नयी धारा को अपनी पोरींचती है। इस शाला में वो जगहें जाली होती है, उनको इस बारा से भर लिया जाता है, और शाला का विस्तार करने में भी ये पादमी काम में पाते हैं। जैसे मशीनें उद्योग की किसी खास पाखा में नौकरी करने वाले मजदूरों के एक हिस्से को मुक्त कर देती है, वैसे ही ये रिसर्व मजदूर भी नौकरी के नये क्षेत्रों में चले जाते हैं और अन्य शालाबों में लग जाते हैं। इस बीच, बो लोग शुरू में बेकार हए , परिवर्तन के काल में प्रायः भूत का शिकार बनकर खतम हो जाते हैं। जे. बीसे की फुसफुसी बातों के जवाब में रिकार्गे के एक शिष्य ने इस विषय के सम्बंध में यह लिखा है : “ जहां श्रम-विभाजन का अच्छा विकास होता है, वहां मजदूर की निपुणता से केवल उसी खास शाखा में काम लिया जा सकता है, जिस शाखा में वह निपुणता प्राप्त की गयी है। मजदूर खुद भी एक ढंग की मशीन होता है। इसलिये, तोते की तरह बार- बार यह रटते रहने से तनिक भी सहायता नहीं मिलती कि चीजों में स्वयं अपना स्तर तलाश कर लेने की प्रवृत्ति होती है। यदि हम अपने इर्द-गिर्द प्रांखें दौड़ाकर देखें, तो लाजिमी तौर पर यह पायेंगे कि चीजों को बहुत समय तक अपना स्तर नहीं मिलता, और अब वह स्तर मिल भी जाता है, तब वह क्रिया के प्रारम्भ होने के समय से सदा नीचे का स्तर होता है।" ("An Inquiry into those Principles Respecting the Nature of Demand, &c." ['मांग के स्वभाव तथा उपभोग की भावश्यकता के विषय में उन सिवान्तों की समीक्षा, पादि'], London, 1821, पृ०७२।) .
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