मशीनें और माधुनिक उद्योग ५१७ . लिया था। पर इन तमाम बातों से अधिक प्रर्षपूर्ण बह कान्ति है, जो मजदूरों की कीमत पर उत्पादन की मिया में हुई। जैसे शरीर-रचना विज्ञान के विशेषज्ञ मंडकों पर प्रयोग करते हैं, बैते ही इन मजदूरों के शरीरों पर प्रयोग (experimenta in corpore vili) किये गये। मि० रेव ने बताया है: "यपि मैंने यहां पर कई मिलों के मजदूरों की वास्तविक कमाई का उल्लेख किया है, परन्तु इसका यह पर्व नहीं है कि वे लगातार हर सप्ताह यही रकम कमाते हैं। कारखानेदार लोग जो तरह-तरह के प्रयोग लगातार किया करते हैं, उनकी वजह से मजदूरों को बड़े उतार-चढ़ाव का शिकार होना पड़ता है... कपास में जैसी मिलावट होती है, उसके अनुसार उनकी कमाई घटती-बढ़ती रहती है। कभी-कभी उसमें और उनकी पुराने दिनों की कमाई में केवल १५ प्रतिशत का ही अन्तर रह जाता है, और फिर एक-दो सप्ताह के भीतर ही उसमें ५० से लेकर ६० प्रतिशत तक की कमी पा जाती है। ये प्रयोग केवल मजदूर के जीवन-निर्वाह के सापनों को कम करके ही नहीं किये जाते थे। मजदूर की पांचों इनियों को भी इसका रस भुगतना पड़ता था। "बो लोग सूती कपास से कताई करते हैं, उनको बहुत ज्यादा शिकायतें है। उन्होंने मुझे बताया है कि कपास की गांठे खोलने पर उनमें से एक असहनीय बदबू निकलती है, जिससे मजदूरों को के होने लगती है... कपास मिलाने, तुमने और धुनने के कमरों में बो धूल और गंदगी उसमें से निकलती है, वह मुंह, नाक, प्रांतों और कानों में विकार पैदा कर देती है, और मजदूरों को बांसी हो जाती है तथा सांस लेने में कठिनाई होने लगती है। मजदूरों में धर्म-रोग भी पाया जाता है, जो इसमें सन्देह नहीं कि सूरती कपास की गंदगी से पैदा होने वाले विकार से फैलता है. ...इस कपास का रेशा बहुत छोटा होने के कारण बनस्पति से बनी और चमड़े से बनी दोनों प्रकार की मांडी बहुत अधिक मात्रा में इस्तेमाल की जाती है. धूल के कारण बांकाइटिस की बीमारी बहुत होती है। इसी कारण अक्सर गला दुखने लगता है और सूज जाता है। बाना अक्सर दूटता रहता है, और हर बार बुनकर को उरकी के छेद में मुंह लगाकर बाने को बाहर खींचना पड़ता है। इससे मतली और मंदाग्नि हो जाती है।" दूसरी ओर, पाटे की जगह पर बो प्रषिक भारी पदार्थ इस्तेमाल किये जाते थे, कारखानेवारों के लिये कारनेटल की पेली बन गये थे, क्योंकि उनसे व्रत का बदन बढ़ गया था। इन पदार्थों के कारण "कताई के बाद १५ पौड कच्चे माल का पतन २६ पार हो जाता था। फ्रक्टरियों के इंस्पेक्टरों की ३० अप्रैल १८६४ की रिपोर्ट में हमें यह पड़ने को मिलता है: "इस व्यवसाय में इस बास तरकीब से पानकल इतना ज्यादा फायदा उठाया जा रहा है कि वह निन्ध है। ८ पौन बबन के एक कपड़े के बारे में मुझे एक अधिकारी व्यक्ति से यह मालूम हुमा कि उसमें पीड कपास और २० पौण मांडी लगी है। एक और कपड़ा है, जिसका वचन . ३ ५- पौन है और जिसमें २ पौन माडी नगी है। ये दोनों विदेशों को भेजने के लिये बनाये गये नीचों के साधारण कपड़े । पूसरी किस्मों के कपड़ों में कमी-कमी ५० प्रतिमत तक माडी बोड़ दी माती पी। कारखानेदार यहाँ तक कह सकता पा-और वह अक्सर इसकी गंग मारा करता पा-कि उसने जिस भाव पर सूत बरीवा बा, अपना कपड़ा वह उससे भी 'उप. पु., पृ०.५०-५१ । 'उप..पु., पृ. ६२-६३।
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