५१८ पूंजीवादी उत्पादन कम भाव पर बेचता है और फिर भी पनी हुमा जाता है। लेकिन केवल मिलों के अन्दर मिल-मालिकों और बाहर नगरपालिकामों द्वारा किये जाने वाले प्रयोगों, मजदूरी में कटौतियों और बेरोजगारी, प्रभाव और भील की रोटी और हाउस माफ़ लाईस तथा हाउस मात कामन्स के प्रशस्ति-भाषणों के कारण ही मजदूरों को कुल उठाना नहीं पड़ता था। " प्रमागी मारियां, जो कपास के अकाल के फलस्वरूप अकाल प्रारम्भ होते ही बेकार हो गयी पी, समाज से बहिष्कृत हो गयी हैं। और अब हालांकि व्यवसाय में फिर से जान पड़ गयी है और काम की भी कोई कमी नहीं है, पर माज भी उसी प्रभागी श्रेणी की समस्याएं बनी हुई है और मागे भी उनके इसी श्रेणी में पड़े रहने की सम्भावना है। नगर में कम-उन्न बेश्यामों की संख्या जितनी भाजकल बढ़ गयी है, उतनी मैंने पिछले २५ वर्ष में कभी नहीं देती थी।" इस तरह हम देखते हैं कि १७७० से १८१५ तक-इंगलैग के सूती व्यवसाय के पहले ४५ वर्षों में केवल ५ वर्ष संकट और व्हराब के थे। परन्तु यह एकाधिकार का काल था। १८१६ से १८६३ तक का दूसरा काल ४८ वर्ष का था। उसमें से २८ वर्ष मंदी और व्हराव के वर्ष थे, और उनके मुकाबले में केवल २० वर्ष व्यवसाय के पुनरुत्थान और समृद्धि के थे। १८१५ और १८३० के बीच योरपीय महाद्वीप और संयुक्त राष्ट्र अमरीका से प्रतियोगिता छिद्र गयी। १८३३ के बाद "मनुष्य-जाति का विनाश करके" (हाप का करपा इस्तेमाल करने वाले हिन्दुस्तानी बुनकरों की पूरी की पूरी पावादी को मिटाकर) एशिया की मण्डियों का बलपूर्वक विस्तार किया गया है। प्रल्ले के कानूनों रद्द कर दिये जाने के बाव, १४६ से १८६३ तक, ७ बर्ष यदि साधारण क्रियाशीलता और समृद्धि का काल रहता है, तो ९ वर्ष मंदी और ठहराव में गुजरते हैं। समृद्धि के वर्षों में भी वयस्क पुरुष मजदूरों की क्या बशा रहती थी, इसका कुछ मान नीचे दिये गये फुटनोट से प्राप्त हो सकता है।' . . 1 "Rep., &c., 30th April, 1864" ("रिपोर्ट, इत्यादि , ३० अप्रैल १८६४') , पृ०२७ । 'बोल्टन के चीफ़ कांस्टेबल , मि० हैरिस के एक पत्र से। देखिये “Rep. of Insp. of Fact., 31st October, 1865" ('फैक्टरियों के इंस्पेक्टरों की रिपोर्ट, ३१ अक्तूबर १८६५'), पृ०६१-६२। 'लंकाशायर मादि के फैक्टरी-मजदूरों ने संगठित परावास का आयोजन करने वाली एक संस्था बनाने के उद्देश्य से १९६३ में एक अपील प्रकाशित की थी। इस अपील में हमें यह पढ़ने को मिलता है : “इस बात से तो अब इने-गिने लोग ही इनकार करेंगे कि मजदूरों को उनकी मौजूदा तबाह हालत से ऊपर उठाने के लिये यह बिल्कुल जरूरी है कि बड़े पैमाने पर उनके परावास की व्यवस्था की जाये । लेकिन यह स्पष्ट करने के लिये कि परावास के एक निरन्तर प्रवाह की हर घड़ी आवश्यकता रहती है और उसके बिना साधारण काल में भी मजदूरों के लिये अपनी स्थिति को बनाये रखना असम्भव हो जाता है, हम निम्नलिखित तथ्यों की पोर ध्यान माकृष्ट करना चाहते हैं : १८१४ में सूती सामान विदेशों को भेजा गया था, उसका सरकारी मूल्य १,७६,६५,३७८ पौण्ड था, जब कि बाजार में वह असल में २,००,७०,८२४ पौण्ड की कीमत पर बेचा जा सकता था। १८५८ में जो सूती सामान विदेशों को भेजा गया, उसका सरकारी मूल्य १८,२२,२१,६८१ पौण्ड था, लेकिन उसका वास्तविक मूल्यं, या वह मूल्य, जिसपर, उसे बाजार में बेचा जा सकता था, केवल ४,३०,०१,३२२ पौण्ड था। यानी पहले से दस गुना सामान अधिक पुरानी कीमत के दुगने से थोड़े ज्यादा दाम लेकर बेच दिया - .
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