माल ५३ . अब हम इसपर विचार करें कि इन विभिन्न प्रकार की उत्पादित वस्तुओं में से प्रत्येक में अब क्या बच रहा है। हरेक में एक सी अमूर्त ढंग की वास्तविकता बच रही है, हरेक सजातीय मानव-श्रम का, खर्च की गयी श्रम-शक्ति का जमाव भर रह गया है, और अब इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि वह श्रम-शक्ति किस पति के अनुसार खर्च की गयी है। अब ये सारी ची- हमें सिर्फ इतना बताती हैं कि उनके. उत्पादन में मानव-श्रम खर्च हुमा है और उनमें मानव-श्रम निहित है। जब इन चीजों पर उनमें समान रूप से मौजूद इस सामाजिक तत्व के स्फटिकों के रूप में विचार किया जाता है, तब वे सब मूल्य होती हैं। हम यह देख चुके हैं कि जब मालों का विनिमय होता है, तब उनका विनिमय-मूल्य एक ऐसी चीन के रूप में प्रकट होता है, जो उनके उपयोग मूल्य से एकदम स्वतंत्र होती है। परन्तु यदि हम उनको उनके उपयोग-मूल्यों से अलग कर लें, तो उनका मूल्य भर बच जाता है, जिसकी परिभाषा हम ऊपर दे चुके हैं। इसलिए, मालों के विनिमय-मूल्य के रूप में जो समान तत्त्व प्रकट होता है, वह उनका मूल्य होता है। हमारी खोज जब आगे बढ़ेगी, तो हमें पता चलेगा कि विनिमय-मूल्य ही एक मात्र ऐसा रूप है, जिसमें मालों का मूल्य प्रकट हो सकता है या जिसके द्वारा उसे व्यक्त किया जा सकता है। फिलहाल, मगर, हमें इससे-यानी मूल्य के इस रूप से स्वतंत्र होकर मूल्य की प्रकृति पर विचार करना है। प्रतएव, किसी भी उपयोग-मूल्य प्रषवा उपयोगी वस्तु में मूल्य केवल इसीलिये होता है कि उसमें अमूर्त मानव-श्रम निहित होता है, या यूं कहिये यह कि उसमें प्रमूर्त मानव-श्रम भौतिक रूप धारण किये हुए होता है। तब इस मूल्य का परिमाण मापा कैसे जाये? बाहिर है, वह इस बात से मापा जाता है कि उस वस्तु में मूल्य पैदा करने वाले तत्व की- यानी श्रम की-कितनी मात्रा मौजूद है। लेकिन श्रम की मात्रा उसकी प्रवषि से मापी जाती है, और श्रम-काल का मापदण हप्ते, दिन या घण्टे होते हैं। कुछ लोग शायद इससे यह समझें कि यदि किसी भी माल का मूल्य उसपर खर्च किये गये श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है, तो मजबूर जितना सुस्त और अनाड़ी होगा, उसका माल उतना ही अधिक मूल्यवान होगा, क्योंकि उसके उत्पादन में उतना ही ज्यादा समय लगेगा। किन्तु वह भम, बो मूल्य का सार है, वह तो सबातीय मानव-श्रम है, उसमें तो एक सी, समरूप श्रम-शक्ति बर्ष की जाती है। समाज की कुल श्रम-शक्ति, जो उस समाज के पैदा किये हए तमाम मालों के मूल्यों के कुल गोड़ में निहित होती है, यहां पर मानव श्रम-शक्ति की एक सजातीय राशि के रूप में गिनी जाती है, भले ही वह राशि असंख्य अलग-अलग इकाइयों का गोड हो। इनमें से प्रत्येक इकाई, जहां तक कि उसका स्वरूप समाज की पोसत श्रम-शापित का है और यहां तक कि वह इस रूप में व्यवहार में पाती है, यानी वहां तक कि उसे माल तैयार करने में प्रोसत से स्यावा-अर्थात् सामाजिक दृष्टि से मावश्यक समय से अधिक -समय नहीं लगता, वहाँ तक वह किसी भी दूसरी इकाई जैसी ही होती है। सामाजिक दृष्टि से प्रावश्यक श्रम-काल वह है, जो उत्पादन की साधारण परिस्थितियों में और उस समाने में प्रचलित सित बकी निपुणता तथा तीव्रता के द्वारा किसी वस्तु को पैदा करने के लिए भावश्यक हो। इंगलैण्ड में बब शाक्ति से चलने वाले करषों का इस्तेमाल शुरू हुमा, तो सूत की एक निश्चित मात्रा को बुनकर कपड़े की शक्ल देने लिए खर्च होने वाली श्रम की मात्रा पहले की तुलना में सम्भवतः पाषी रह गयी। बाहिर है, हाप का करपा इस्तेमाल करने वाले बुनकरों को उसके .
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