निरपेक्ष और सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य ५७३ अब तो यदि आप किसी सामूहिक मजदूर की एक इनिय के रूप में उसका कोई गौण काम कर देते हैं, तो वही काफी होता है। उत्पादक श्रम की यह पहली परिभाषा, को ऊपर वी गयी है और जो खुद भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के स्वरूप से निकाली गयी पी, एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में सामूहिक मजदूर के लिये अब भी सही रहती है। परन्तु इस समूह के अलग- अलग सदस्य के लिये यह परिभाषा अब सही नहीं रहती। किन्तु, दूसरी ओर, उत्पादक श्रम की हमारी अवधारणा संकुचित हो जाती है। पूंजीवादी उत्पावन केवल मालों का उत्पादन नहीं होता। वह बुनियादी तौर पर अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन होता है। मजदूर खुद अपने लिये नहीं, बल्कि पूंजी के लिये पैदा करता है। इसलिये अब उसके लिये केवल पैदा करना ही काफी नहीं होता। उसे अतिरिक्त मूल्य पैदा करना होता है। केवल वही मजदूर उत्पादक माना जाता है, जो पूंजीपति के लिये अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है और वो इस तरह पूंजी के प्रात्म-विस्तार में हाप बंटाता है। यदि हम भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के क्षेत्र के बाहर से एक मिसाल लें, तो स्कूल-मास्टर उस वक्त उत्पादक मजदूर माना जायेगा, जब वह अपने विद्यार्षियों के दिमागों की दुकाई-पिटाई करने के अलावा स्कूल के मालिक का धन बढ़ाने के लिये घोड़े की तरह कसकर मेहनत करेगा। मालिक ने यदि सोसेन की फ्रेपटरी के बजाय पढ़ाई की फैक्टरी में अपनी पूंजी लगा रखी है, तो उससे इस सम्बंध में कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसलिये उत्पादक मजदूर की अवधारणा का केवल इतना ही पर्व नहीं होता कि काम तथा उसके उपयोगी प्रभाव बीच और मजदूर तथा मम के फल के बीच एक सम्बंध होता है, बल्कि उसका यह पर्व भी होता है कि यहाँ उत्पावन का एक विशिष्ट सामाजिक सम्बंध होता है, जिसका एक ऐतिहासिक क्रिया के द्वारा जन्म हुमा है और जिसने मजदूर को अतिरिक्त मूल्य पैरा करने का प्रत्यक्ष साधन बना दिया है। इसलिये उत्पादक मजदूर होना कोई सौभाग्य न होकर दुर्भाग्य की बात है। इस पंथ की चौपी पुस्तक में हमने सिवान्त के इतिहास का विवेचन किया है। वहां यह बात और स्पष्ट हो जायेगी कि प्रामाणिक प्रर्वशास्त्रियों ने प्रतिरिक्त मूल्य के उत्पादन को सदा उत्पादक मजदूर का एक विशिष्ट लक्षण माना है। इसलिये जैसे-जैसे अतिरिक्त मूल्य के स्वरूप की उनकी समम बदलती जाती है, वैसे- वैसे उनकी उत्पादक मजदूर को परिभाषा में भी परिवर्तन होता जाता है। चुनांचे फ्रिविमोकेटों का कहना था कि केवल ती का मन ही उत्पादक होता है, क्योंकि उनकी राय में केवल उसी मम से अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है। और उनकी यह राय इसलिये थी कि उनकी नबरों में लगान के सिवा अतिरिक्त मूल्य के अस्तित्व का कोई और नहीं है। काम के दिन को उस बिन्दु के मागे खींच ले जाना, यहां तक मजदूर केवल अपनी मन-शक्ति के मूल्य का सम-मूल्य ही पा कर पाता है, और पूंजी का इस अतिरिक्त मम पर अधिकार कर लेना-यह निरपेक अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन है। इस प्रकार का उत्पादन पूंजीवादी व्यवस्था का सामान्य मूलाधार और सापेक अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का प्रस्थान- बिंदु है। सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन यह मानकर चलता है कि काम का दिन पहले से ही दो भागों में-मावश्यक मम और अतिरिक्त मम में-बंटा हमा है। अतिरिक्त मम को बढ़ाने के लिये मावश्यक मन को ऐसे तरीकों से छोटा कर दिया जाता है, जिनसे मजदूरी का सम-मूल्य पहले की अपेक्षा कम समय में तैयार हो जाता है। निरपेन अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन मात्र काम के दिन की लम्बाई पर निर्भर करता है। सापेन अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन मन की प्राविधिक प्रक्रियामों और समाज की बनावट में मूलभूत कान्ति पैदा कर देता
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