पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/५९६

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श्रम-शक्ति के दाम में और अतिरिक्त मूल्य में होने वाले परिमाणात्मक परिवर्तन ५९३ 1 गया था और जिसकी वास विशेषता यह थी कि यहां पर अगर पूंजी का बड़ी तेजी के साथ संचय हो रहा था, तो वहां पर कंगाली बढ़ रही थी।' 1 11 - . 'अनाज और श्रम बहुत कम साथ-साथ चलते हैं, लेकिन एक स्पष्ट सीमा है, जिसके बाद उनको अलग नहीं किया जा सकता। जहां तक श्रमजीवी वर्गों की उस असाधारण मेहनत का ताल्लुक़ है, जो वे महंगाई के दिनों में करते हैं और जिससे मजदूरी में वह गिराव पा जाता है, जिसकी मोर गवाहियों में (यानी १८१४-१५ की संसदीय जांच-समिति के सामने दी गयी गवाहियों में) ध्यान आकर्षित किया गया है, जिन व्यक्तियों ने वह मेहनत की, वे प्रशंसा के पात्र है और उससे निश्चय ही पूंजी के विकास में सहायता मिली है। लेकिन जिस मनुष्य में थोड़ी भी मानवता है, वह यह नहीं चाहेगा कि यह प्रसाधारण मेहनत कभी रुके नहीं और लगातार चलती ही रहे। प्रस्थायी सहायता के रूप में यह एक बड़ी उत्तम चीज है, परन्तु यदि वह लगातार चलती जाती है, तो उसके उसी तरह के नतीजे होंगे , जैसे किसी देश की पाबादी के चरम सीमा तक पहुंचने और खुराक की कमी के कारण होते हैं।" (Malthus, "Inquiry into the Nature and Progress of Rent" [माल्यूस , 'लगान के स्वरूप तथा प्रगति की समीक्षा'], Londoll, 1815, पृ० ४८, नोट।) माल्यूस सम्मान के पात्र है, क्योंकि उन्होंने श्रम के घण्टों के बढ़ाये जाने पर जोर दिया है। अपनी पुस्तिका में अन्यत्र भी उन्होंने इस तथ्य की मोर ध्यान आकर्षित किया है, जब कि रिकार्डो तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने तो अत्यन्त स्पष्ट प्रमाणों के होते हुए भी काम के दिन की लम्बाई की अपरिवर्तनशीलता को अपनी तमाम छान-बीन का मूलाधार बनाया है। परन्तु माल्यूस जिन दकियानूसी हितों की सेवा करते थे, उन्होंने उनको यह नहीं देखने दिया कि काम के दिन की लम्बाई को मनमाने ढंग से बढ़ाते जाने का, मशीनों के प्रसाधारण विकास और स्त्रियों और बच्चों के शोषण के साथ मिलकर, लाजिमी तौर पर यह नतीजा होगा कि मजदूर-वर्ग का एक बड़ा भाग "फालतू" बन जायेगा, और ख़ास तौर पर जब कभी युद्ध बन्द हो जायेगा तथा दुनिया की मण्डियों पर इंगलैण्ड का एकाधिकार खतम हो जायेगा, तब तो यह बात और भी जोरों के साथ होगी। जाहिर है, माल्यूस जिन शासक वर्गों की पुजारी की तरह पूजा करते थे, यह बात उनके लिये अधिक सुविधाजनक और उनके हितों के अधिक अनुकूल थी कि पूंजीवादी उत्पादन के ऐतिहासिक नियमों की छानबीन करने की अपेक्षा इस "जनाधिक्य" को प्रकृति के शाश्वत नियमों के माधार पर ही अनिवार्य सिद्ध करके मामले को रफा-दफा कर दिया जाये। "युद्ध के दौरान में पूंजी के बढ़ने का एक प्रधान कारण यह था कि श्रमजीवी वर्गों को, जिनकी संख्या प्रत्येक समाज में सबसे अधिक रहती है, इस काल में पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ी और शायद पहले से ज्यादा तकलीफें भी उठानी पड़ीं। परिस्थितियों से मजबूर होकर पहले से अधिक संख्या में स्त्रियों और बच्चों को सख्त मेहनत के काम करने पड़े, और इसी कारण पहले से काम करने वाले मजदूरों को अपने समय का पहले से बड़ा भाग उत्पादन बढ़ाने में लगाना पड़ा। ("Essays on Pol. Econ., in which are illustrated the Prin- cipal Causes of the Present National Distress" ['अर्थशास्त्र पर निबंध, जिसमें वर्तमान राष्ट्रीय विपत्ति के प्रधान कारणों का निदर्शन किया गया है'], London, 1830, पृ. २४८1) 11 38-45