माल की उत्पादक कार्रवाई की गयी होती है। यदि प्रत्येक उपयोग-मूल्य में निहित उपयोगी भम गुणात्मक दृष्टि से अलग ढंग का न हो, तो विभिन्न उपयोग-मूल्य मालों के रूप में एक दूसरे के मुकाबले में नहीं बड़े हो सकते। किसी भी ऐसे समाज में, जिसकी पैदावार पाम तौर पर मालों का रूप धारण कर लेती है, अर्थात् माल पैदा करने वालों के किसी भी समाज में, अलग- अलग पैदा करने वाले स्वतंत्र रूप से तथा निजी तौर पर जो विभिन्न प्रकार के उपयोगी मम करते हैं, उनके बीच का यह गुणात्मक अन्तर विकसित होकर एक संश्लिष्ट व्यवस्था-यानी सामाजिक प्रम-विभाजन-बन जाता है। बहरहाल, बी अपना बनाया हुमा कोट चाहे खुद पहने और चाहे उसका खरीदार उसे पहने, बोनों सूरतों में कोट उपयोग मूल्य के रूप में काम पाता है। कोट तथा उसे पैदा करने वाले श्रम का सम्बंध इस बात से भी नहीं बदल जाता है कि कपड़े सीने का काम एक खास पंषा, अर्थात् सामाजिक श्रम-विभाजन की एक स्वतंत्र शाला, बन गया है। हजारों वर्ष तक जब कभी मनुष्य-जाति को कपड़े की बकरत महसूस हुई, लोगों ने कपड़े सीकर तैयार कर लिये, लेकिन एक भी भावमी कभी बर्दा न बना। किन्तु भौतिक धन के प्रत्येक ऐसे तत्व की भांति, को प्रकृति की स्वयंस्फूर्त पैदावार नहीं है, कोट और कपड़ा भी अनिवार्य रूप से एक ऐसी उत्पादक किया के परिणामस्वरूप अस्तित्व में पाते हैं, जो एक निश्चित उद्देश्य को सामने रखकर की जाती है और जो प्रकृति की दी हुई विशेष प्रकार की सामग्री को विशेष प्रकार की मानव- पावश्यकतामों के अनुकूल बनाती है। इसलिए, जहाँ तक श्रम उपयोग-मूल्य का सृजनकर्ता है, पानी नहां तक वह उपयोगी श्रम है, वहां तक वह समाज के सभी स्पों से स्वतंत्र, मनुष्य- जाति के अस्तित्व की पावश्यक शर्त है। यह प्रकृति द्वारा लागू की गयी ऐसी स्थायी पावश्यकता है, जिसके बगर मनुष्य तथा प्रकृति के बीच कोई भौतिक मावान-प्रदान नहीं हो सकता और इसलिए जिसके बगैर मानव-जीवन भी नहीं हो सकता। कोट, कपड़ा प्रावि उपयोग मूल्य, अर्थात् मालों के ढांचे, वो तत्वों के योग होते हैं- पदार्य और श्रम के। उनपर जो उपयोगी मम खर्च किया गया है, यदि पाप उसे अलग कर दें, तो एक ऐसा भौतिक मापार-तत्त्व हमेशा बच जाता है, जो बिना मनुष्य की सहायता के प्रकृति से मिलता है। मनुष्य भी केवल प्रकृति की तरह काम कर सकता है, अर्थात् यह भी केवल पदार्थ का रूप बदलकर ही काम कर सकता है। यही नहीं, आप बदलने के इस काम . 1 "Tutti i fenomeni dell'universo, sieno essi prodotti della mano dell' uomo, ovvero delle universali leggi della fisica, non ci denno idea di attuale creazione, ma unicamente di una modificazione della materia. Accostare e separare sono gli unici elementi che l'ingegno umano ritrova analizzando l'idea della riprodu- zione: e tato è riproduzione di valore (value in use, although Verri in this passage of his controversy with the Physiocrats is not himself quite certain of the kind of value he is speaking of) e di richezze se la terra, l'aria e l'acqua nei campi si trasmutino in grano, come se colla mano dell'uomo il glutine di un insetto si trasmuti in velluto ovvero alcuni pezzetti di metallo si organizzino a formare una ripetizione." ["विश्व की सभी घटनाएं, चाहे वे मनुष्य के हाथ का फल हों और चाहे वे प्रकृति के सार्वत्रिक नियमों का परिणाम हों, वास्तव में सूजन नहीं, बल्कि केवल पदार्थ के स्मों में परिवर्तन है। मानव-बुद्धि जब कभी पुनरुत्पादन के विचार का विश्लेषण करती है, तो उसे केवल दो ही तत्त्व दिखाई पड़ते हैं-एक जोड़ना, दूसरा तोड़ना; यही बात मूल्य (उपयोग-
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